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________________ [ २०६ ] - जो 'एतच्च सप्तमपदात्प्राग्दृष्टव्यम्' वाक्य दिया है वह मूल से बाहर की चीज है- -मूल के किसी शब्द से सम्बंध नहीं रखती उसे टीका की अपनी राय अथवा टीकाकार की खीचातानी कहना चाहिये | अन्यथा, याज्ञवल्क्यस्मृति में खुद उसके बाद अक्षता च चता चैव पुनर्भूः संस्कृता पुनः' आदि वाक्य के द्वारा अन्यपूर्वा स्त्री के भेदों में ‘पुनर्भू' खी का उल्लेख किया है और उसे 'पुनः संस्कृता' लिख कर पुनर्विवाह की अधिकारिणी प्रतिपादन किया है। साथ ही, उसके चनयोनि (पूर्व पति के साथ संगम को प्राप्त हुई) और अक्षत - योनि (संस्कार मात्र को प्राप्त हुई ) ऐसे दो भेद किये हैं । पुनर्भू का विशेषस्वरूप 'मनुस्मृति' और 'वशिष्ठस्मृति' के उन वाक्यों से भी जाना जासकता है जो ऊपर उद्धृत किये जा चुके हैं। ऐसी हालत में सोनी जी का अपने अर्थ को (ब्राह्मण) सम्प्रदाय के विरुद्ध बत ज्ञाना और दूसरों के अर्थ को विरुद्ध ठहराना कुछ भी मूल्य नहीं रखता - वह प्रलापमात्र जान पड़ता है । - * ब्राह्मण सम्प्रदाय के वशिष्ठ ऋषि तो साफ़ लिखते हैं कि कन्या यदि किसी ऐसे पुरुष को दान कर दी गई डो जो कुल शील से विहीन हो, नपुंसक हो, पतित हो, रोगी हो, विधर्मी हो या वेशधारी हो, अथवा सगोत्री के साथ विवाह दी गई हो तो उसका हरण करना चाहियेऔर इस तरह पर उम्र पूर्व विवाह को रद्द करना चाहिये । यथा:कुलशील विहीनस्य पण्डादि पतितस्य च । अपस्मार विधर्मस्य रोगिणां वेशधारिणाम् .. - दत्तमपि हरेत्कन्यां सगोत्रोढां तथैव च ॥" ( शब्दकल्पद्रुम) इस वाक्य में प्रयुक्त 'सगोत्रोढां' (समान गोत्री से विवाही हुई) वद 'दत्तां'ग्द पर अच्छा प्रकाश डालता है और उसे 'विवाहिता' सूचित करता है । सोमदेव ने भी अपने उस 'विकृत पत्थूढा' नामक वाक्य में स्मृतिका का जो मत उद्धृत किया है उसमें उस पुनर्विवाह योग्य श्री को 'ऊढा' ही बताया है जिसका अर्थ होता है 'विदिता' । २१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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