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कर रक्खा है जिसकी बाबत यह बहुत कुछ संभव है कि वह वाममार्गियों अथवा शाक्तिकों का मंत्र हो और खोज करने पर उनके क्रिसी ग्रंथ में मिल जाय । ऐसी हालत में उक्त पद्म भी अकेला अथवा दूसरे पद्य के साथ में--उसी ग्रंथ से लिया गया होना चाहिये । मालूम होता है, उसे देते हुए, भट्टारकजी को यह खयाल नहीं रहा कि जब हम पछ में उल्लेखित मंत्र को नहीं दे रहे हैं तब हमें इसके पलं देहाति शब्दों को भी बदल देना चाहिये । परन्तु भट्टारकजी को इतनी सूझ बूझ कहाँ थी ? और इसलिये उन्होंने पद्य के उस पाठ को म बदल कर मंत्र को ही बदल दिया है !!!
स्याग या तलाक। (२६ ) ग्यारहवें अध्याय में, विवाहविधि को समाप्त करते हुए, महारक नी लिखते है:--
*अप्रजा दशमे वर्षे स्त्रीवजा द्वादशे स्यजेत् ।
मृतप्रजां पंचदशे सद्यस्त्वप्रियवादिनीम् ॥ १६७॥ अर्थात्--जिस स्त्री के लगातार कोई संतान न हुई हो उसे दसवें वर्ष, जिसके कन्याएँ ही उत्पन्न होती रही हों उसे बारहवें वर्ष, जिसके
* यह पद्य किसी हिन्दू ग्रंथ का जान पड़ता है । हिन्दुओं की 'नवरत्न विवाह पद्धति ' में भी वह संगृहीत मिलता है । अस्तु; इस पध के अनुवाद में सोनीजी ने ' त्यजेत् ' पद का अर्थ दिया है'दसरा विवाह करे' और ' अप्रियवादिनी' के पहले एक विशेषण अपनी तरफ़ से जोड़ा है 'अत्रवती' ! साथ ही अप्रियवादिनी का अर्थ व्यभिचारिणी' बतलाया है !! और ये सब बातें आपके अनुवाद की विलक्षणता को सूचित करती हैं। इसके सिवाय अपने त्यागावधि के वर्षों की गणना प्रथम रजो
दर्शन के समय से की है ! यह भी कुछ कम वितणता नहीं है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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