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________________ [१६२] + प्रकृत्वाऽविवाहं तु तृतीयां यदि चोहहेत् । विधवासा भवेत्कन्या तस्मात्कार्य विचक्षणा (णैः) ॥२०४॥ अर्कसन्निधिमागत्य कुर्यात्स्वरूत्यादिवाचनाम् । मर्कस्याराधनां कृत्वा सूर्य सम्प्रार्थ चोद्वहेत् ॥२०॥ भट्टारकजी का यह सब कथन भी जैनशासन के विरुद्ध है। और उमका उक्त वैधव्ययोग जैन-तत्वज्ञान के विरुद्ध ही नहीं किन्तु प्रत्यक्ष के भी विरुद्ध है-प्रत्यक्ष में सैंकड़ों उदाहरण ऐसे उपस्थित किये जा सकते हैं जिनमें तीसरे विवाह से पहले अर्कविवाह नहीं किया गया, और फिर भी वैधव्य-योग संघटित नहीं हुआ। साथ ही, ऐसे उदाहरणों की भी कमी नहीं है जिनमें अर्क विवाह किये जाने पर भी स्त्री विधवा हो गई है और वह अविवाह उसके वैधव्ययोग का टाल नहीं सका । ऐसी हालत में यह कोई लाजिमी नियम नहीं ठहरता कि अर्कविवाह न किये जाने पर कोई स्त्री स्वाहमख्वाह भी विधवा हो जाती है और किये जाने पर उसका वैधव्ययोग भी टल जाता है । तब भट्टारकजी का उक्त विधान कोरा वहम, भ्रम और लोकमूढता की शिक्षा के सिवाय और कुछ भी मालूम नहीं होता। + इस पद्य के अनुवाद में सोनीजी ने पहली स्त्री को 'धर्मपत्नी' और दूसरी को 'भोगपत्नी' बतलाकर जो यह लिखा है कि "इन दो स्त्रियों के होते हुए तीसरा विवाह न करे" वह सब उनकी निजी कल्पना जान पड़ता है । मूल गद्य के प्राशय के साथ उसका कुछ सम्बन्ध नहीं है । मूल से यह लाज़िमी नहीं आता कि वह दो स्त्रियों के मौजूद होते हुए ही तीसरे विवाह की व्यवस्था बतलाता है। बल्कि अधिकांश में, अपने पूर्वपद्य-सम्बन्ध से, दो त्रियों के मरजाने पर तीसरी स्त्रीको विवाहने की व्यवस्था करता हुनामालूम होता है। सी तरह का हाल भडारकजी के उस दूसरे वैत्रव्य-योग का. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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