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[१६० भी घिरा हुआ है । साथ ही, जैनागम में उसे वैसी कोई प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं है । अतः उसमें पूतत्व आदि गुणों की कल्पना करना, उससे उन गुणों की प्रार्थना करना और हिन्दुओं की तरह से उसकी पूजा
पीपल का पूजना लोक मूढ़ता की कोटि से नहीं निकल सकता, फिर भी मैं यहाँ पर इतना और बतला देना चाहता हूँ कि गंगादिक नदियों के जिस स्नान की यह। तुलना की गई है वह संगत मालूम नहीं होता; क्योंकि महज़ शारीरिक मलशुद्धि के लिये जो गंगादिक में स्नान करना है वह उन नदियों का पूजन करना नहीं है और यहाँ स्पष्ट रूप से 'पूजितुं गच्छेत्' आदि पदों के द्वारा पीपल की पूजा का विधान किया गया है और उसकी तीन प्रदक्षिणा देना तथा उससे प्रार्थना करना तक लिखा है-यह नहीं लिखा कि पीपल की छाया में बैठना अच्छा है, अथवा उसके नीचे बैठकर अमुक कार्य करना चाहिये, इत्यादि । और इसलिये नदियों की पूजा-वन्दनादि करना जिस तरह मिथ्यात्व है उसी तरह पूज्य बुद्धि को लेकर पीपल की यह उपासना करना भी मिथ्यात्व है । हाँ, एक दूसरी जगह (१० वें अध्याय में), लोकमूढ़ता का वर्णन करते हुए सोनीजी लिखते हैं-"सर्वसाधारण अग्नि, वृक्ष, पर्वत आदि पूज्य क्यों नहीं और विशेष विशेष कोई कोई पूज्य क्यों हैं ? इसका उत्तर यह है कि जिनसे जिन भगवान का सम्बन्ध है वे पूज्य हैं; अन्य नहीं।" परन्तु पीपल की बाबत आपने यह भी नहीं बतलाया कि उससे जिन भग. वान का क्या खास सम्बन्ध है, जिससे हिन्दुओं की तरह उसकी कुछ पूजा बन सकती, बल्कि वहाँ 'बोधि' का अर्थ 'बड़' करके
आपने अपने पूर्व कथन के विरुद्ध यज्ञोपवीत संस्कार के समय पीपल की जगह बड़ वृक्ष की पूजाका विधान करद्रिया है ! और यह
मापके अनुवाद की और भी विलक्षणता है !! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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