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[१५८१ वजह है जो वे पीपल में पवित्रता, यज्ञयोग्यता और वोधित्वादि गुणों की कल्पना किये हुए हैं । पीपल में पूतत्व गुण अथवा पवित्रता के हेतु का उल्लेख करने वाला उनका एक वाक्य नमूने के तौर पर इस प्रकार है:
अश्वत्थ ! यस्मात्त्वयि वृतराज! नारायणस्तिष्ठति सर्वकारणम् । अतः शुचिस्त्वं सततं तरूणाम् विशेषतोऽरिएविनाशनोऽसि ॥
इस वाक्य में पीपल को सम्बोधन करके कहा गया है कि ' हे वृक्षराज ! चूँकि सब का कारण नारायण ( विष्णु भगवान ) तुम्हारे में तिष्ठता है, इसलिये तुम सविशेष रूप से पवित्र हो और अरिष्ट का नाश करने वाले हो'।
ऐसी हालत में, अपने सिद्धान्तों के विरुद्ध, दूसरे लोगों की देखादेखी पीपल पूजने अथवा इस रूप में लोकानुवर्तन करने से सम्यग्दर्शन मैला होता है-सम्यक्त्व में बाधा आती है-यह बहुत कुछ स्पष्ट है।
खेद है भट्टारकजी, जैन दृष्टि से, यह नहीं बतला सके कि पीपल में किस सम्बन्ध से पूज्यपना है अथवा किस आधार पर उसमें बोधित्व तथा पूतत्वादि गुणों की कल्पना बन सकती है ! ४ प्रत्यक्ष में वह
"(अथर्वण उवाच) पुरा ब्रह्मादयो देवाः सर्वे विष्णुं समाश्रिताः ।
प्रच्छन्नं देवदेवेशं राक्षसैः पीडिताः स्वयम् ।
कथं पीडोपशमनमस्माकं ब्रूहि मे प्रभो ॥ "(श्रीविष्णुरुवाच) अहमश्वत्थरूपेण संभवामि च भूतले।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन कुरुध्वं तहसेवनम् ॥ अनेन सर्वभद्राणि भविष्यन्ति न संशयः ।
-जयसिंहकल्पद्रुम । x भट्टारकजी के कथन को ब्रह्मवाक्य समझने वाले सोनीजी भी, अपने अनुवाद में डेढ़ पेज का लम्बा भावार्य लगाने पर भी, इस विषय
को स्पष्ट नहीं कर सके और न भट्टारकजी के हेतु को ही निर्दोष Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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