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[१५६] का पूजन चाहे घर के लिये किया जाय, चाहे लोका. चार की दृष्टि से किया जाय और चाहे किसी के अनु. रोध से किया जाय, वह सब सम्यग्दर्शन की हानि करने वाला है--अथवा यों कहिये कि मिथ्यात्व को बढ़ाने वाला है। यथा:
वराथं लोकवार्तार्थमुपरोधार्थमेव वा।
उपासनमीषां स्यात्सम्यग्दर्शनहानये ॥ पंचाध्यायी में भी लौकिक सुखसम्पत्ति के लिये कुदेवाराधन को 'लोकमूढता' बतलाते हुए, उसे 'मिथ्या लोकाचार' बतलाया है और इसीलिये त्याज्य ठहराया है-यह नहीं कहा कि लौकिका. चार होने की वजह से वह मिथ्यात्व ही नहीं रहा। यथा:--
कुदेवाराधनं कुर्यादैहिकश्रेयसे कुधीः ।
मृषालोकोपचारत्वादश्रेया लोकमूढता॥ इससे यह स्पष्ट है कि कोई मिथ्याक्रिया महज़ लोक में प्रचलित अथवा लोकाचार होने की वजह से मिथ्यात्व की कोटि से नहीं निकल जाती और न सम्यक्रिया ही कहला सकती है । जैनियों के द्वारा, वास्तव में, लौकिक विधि अथवा लोकाचार वहीं तक मान्य किये जाने के योग्य हो सकता है जहाँ तक कि उससे उनके सम्यक्त्व में बाधा न आती हो और न व्रतों में ही कोई दूषण लगता हो; जैसा कि सोमदेवसूरि के निम्न वाक्य से भी प्रकट है:
सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतदूषणम् ॥
-यशस्तिलक ॥ ऐसी हालत में भट्टारकजी का उक्त हेतुवाद किसी तरह भी युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता और न सम्पूर्ण लोकाचार ही, बिना किसी विशेषता के, महज़ लोकाचार होने की वजह से मान्य किये जाने के योग्य ठहरता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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