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________________ [१५२] बाधा नहीं पाती । बहुधा परस्पर के खान पान तथा बिरादरी के लेन देन तक ही उसे सीमित रखना चाहिये । धर्म पर उसका आतंक न जमना चाहिये, किन्तु ऐसे अवसरों पर, भरतजी की तरह, अपने योग्य धर्माचरण को बराबर करते रहना चाहिये । और यदि कहीं का वातावरण, अज्ञान अथवा संसर्गदोष से या ऐसे ग्रंथों के उपदेश से दूषित हो रहा हो-सूतक पातक की पद्धति बिगड़ी हुई हो तो उसे युक्ति पूर्वक सुधारने का यत्न करना चाहिये । तेरहवें अध्याय में मृतकसंस्कारादि-विषयक और भी कितना ही कथन ऐसा है जो दूसरों से उधार लेकर रक्खा गया है और जैनदृष्टि से उचित प्रतीत नहीं होता । वह सब भी मान्य किये जाने के योग्य नहीं है । यहाँ पर विस्तारभय से उसके विचार को छोड़ा जाता है। मैं समझता हूँ ग्रंथ पर से सूतक की विडम्बना का दिग्दर्शन कराने के लिये उसका इतना ही परिचय तक विवेचन काफी है। सहृदय पाठक इस पर से बहुत कुछ अनुभव कर सकते हैं । पिप्पलादि-पूजन । (२१) नववें अध्याय में, यज्ञोपवीत संस्कार का वर्णन करते हुए; भट्टारकजी ने पीपल वृक्ष के पूजने का भी विधान किया है । आपके इस विधानानुसार 'संस्कार से चौथे दिन पीपल पूजने के लिये जाना चाहिये। पीपल का वह वृक्ष पवित्र स्थान में खड़ा हो, ऊँचा हो, छेददाहादि से रहित हो तथा मनोज्ञ हो; और उसकी पूजा इस तरह पर की जाय कि उसके स्कन्ध देश को दर्भ तथा पुष्पादिक की मालाओं और हलदी में रंगे हुए सूत के धागों से अलंकृत किया जाय--लपेटा अथवा सजाया जाय-, मूल को जल से सींचा जाय और वृक्ष के पूर्व की ओर एक चबूतरे पर अग्निकुंड बनाकर उसमें नौ नौ समिधाओं तथा घृतादिक से होम किया नाय; इसके बाद उस वृक्ष से, जिसे सर्व मंगलों का हेतु बतलाया है, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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