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________________ [१४६] व्याधितस्य कदर्यस्य ऋणग्रस्तस्य सर्वदा । क्रियाहीनस्य मूर्खस्य स्त्रीजितस्य विशेषतः ॥११॥ व्यसनासक्तचित्तस्य पराधीनस्य नित्यशः। श्राद्धत्यागविहीनस्य षण्ढपाषण्डपापिनाम् ॥ १२० ॥ पतितस्थ च दुष्टस्य भस्मांतं सूनकं भवेत् । यदि दग्धं शरीरं चेत्सूनकं तु दिनत्रयम् ॥ १२१ ॥ अर्थात्-जो लोग व्याधि से पीड़ित हों, कृपण हों, हमेशा कर्जदार रहते हों, क्रिया-हीन हों, मूर्ख हों, सविशेष रूप से स्त्री के वशवर्ती हों, व्यसनासक्तचित्त हों, सदा पराधीन रहने वाले हों, श्राद्ध न करते हों, दान न देते हों, नपुंसक हों, पाषण्डी हों, पापी हो. पतित हों अथवा दुष्ट हों, उन सब का सूतक भस्मान्त होता है-अर्थात् , शरीर के भस्म हो जाने पर फिर सूतक नहीं रहता । सिर्फ उस मनुष्य को तीन दिन का सूतक लगता है जिसने दग्धक्रिया की हो। इस कथन से सूतक का मामला कितना उलट पलट हो जाता है उसे बतलाने की ज़रूरत नहीं, सहृदय पाठक सहज ही में उसका अनुभव कर सकते हैं । मालूम नहीं भट्टरकजी का इस में क्या रहस्य था ! उनके अनुयायी सोनीजी भी उसे खोल नहीं सके और वैसे ही दूसरों पर अश्रद्धा का आक्षेप करने बैठ गये !! हमारी राय में तो - इस कथन से सूतक की विडम्बना और भी बढ़ जाती है और उसकी कोई एक निर्दिष्ट अथवा स्पष्ट नीति नहीं रहती । लोक व्यवहार भी इस व्यवस्था के अनुकूल नहीं है । वस्तुतः यह कथन भी प्रायः हिन्दू धर्म का कथन है । इसके पहले दो पद्य 'अत्रि ऋषि के वचन हैं और वे 'अत्रिस्मृति' में क्रमशः नं० १०० तथा १०१ पर दर्ज हैं, सिर्फ इतना भेद है कि वहाँ दूसरे पद्य का अन्तिम चरण 'भस्मान्तं सूतकं भवेत्' दिया है, जिसे भट्टारकजी ने अपने तीसरे पय का दूसरा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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