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________________ [ १४४ ] भी जैन धर्म की व्यवस्था है ? छेदपिण्डादि शास्त्रों में तो जला ऽनलप्रवेशादिद्वारा मरे हुओं की तरह परदेश में मरे हुओं का भी सूतक नहीं माना है । यथा: ――― वालत्तणसूरत्तणजलणादिपवेसदिकखेहिं । अणसणपरदेसेसु य मुदारा खलु सूनगं रात्थि ॥ ३५३ ॥ - छंदपिण्ड । लोयसुरत्तविदी जलाइ परदेसवाल सरणा से । मरिदे खणे ण सोही वदसद्दिदे चेव सागारे ॥ ८६ ॥ – छेद शास्त्र । इससे उक्त व्यवस्था को जैनधर्म की व्यवस्था बतलाना और भी आपत्ति के योग्य हो जाता है। भट्टारकजी ने इस व्यवस्था को हिन्दू धर्म से लिया हैं, और वह उसके 'मरीचि' ऋषि की व्यवस्था है * । उक्त श्लोक भी मरीचि ऋषि का वाक्य है और उसका अन्तिम चरण है 'दशाहं सूतकी भवेत्' । भट्टारकजी ने इस चरण को बदल कर उसकी जगह 'पुत्राणां दशरात्रकं' बनाया है और उनका यह परिवर्तन बहुत कुछ बेढंगा जान पड़ता है, जैसा कि पहिले ( 'अजैनग्रन्थों से संग्रह' प्रकरण में ) बतलाया जा चुका है । (घ) इसी तेरहवें अध्याय में भट्टारकजी एक और भी अनोखी व्यवस्था करते हैं । अर्थात्, लिखते हैं कि 'यदि कोई अपना कुटुम्बी * मनु आदि ऋषियों की व्यवस्था इससे भिन्न है और उसको 'जानने के लिये 'मनुस्मृति' आदि को देखना चाहिये । यहाँ पर एक वाक्य पराशरस्मृति का उद्धृत किया जाता है जिसमें ऐसे अवसर पर सद्यः शौच की-तुरत शुद्धि कर लेने की व्यवस्था की गई है । यथा: देशान्तरमृतः कश्चित्सगोत्रः श्रूयते यदि । न त्रिरात्रमहोरात्रं सद्यः स्नात्वा शुचिर्भवेत् ॥ ३-१२ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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