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________________ [१२६] • में ही भोजन के अतिरिक्त देवपूजन, स्वाध्याय दान और जप ध्यानादिक सम्पूर्ण धार्मिक कृत्यों का अनुष्ठान करता है । यदि एक वस्त्र में इन सब कृत्वों का किया जाना निषिद्ध हो तो श्रावक का उत्कृष्ट लिंग हो नहीं बन सकता, अथवा यों कहना होगा कि उसका जीवन धार्मिक नहीं हो सकता। इससे जैनशासन के साथ इस सत्र कथन का कोई संबंध ठीक नहीं बैठता- वह जैनियों की सैद्धान्तिक दृष्टि से निरा सारहीन प्रतीत होता है । वास्तव में यह कथन भी हिन्दू-धर्म से लिया गया है । इसके प्रतिपादक वे दोनों वाक्य भी जो ३६ वें पद्य का उत्तरार्ध और ३७ वें पद्य का पूर्वार्ध बनाते हैं हिन्दू-धर्म की चीज हैं -- हिन्दुओं के 'चंद्रिका' ग्रंथ का एक श्लोक हैं - और स्मृतिरत्नाकर में भी, ब्रेकिटों में दिये हुए साधारण से पाठभेद के साथ, उद्धृत पाये जाते हैं । सुपारी खाने की सज़ा । " ( १७ ) भोजनाध्याय * में ताम्बूलविधि का वर्णन करते हुए, मट्टारकजी लिखते हैं अनिघाय मुखे पर्णे पूगं खादति यो नरः । सप्तजन्मदरिद्रः स्यादन्ते नैव स्मरेजिनम् ॥ २३३ ॥ * कुठे अध्याय का नाम 'भोजन' अध्याय है परन्तु इसके शुरू के १४६ श्लोकों में जिनमंदिर के निर्माण तथा पूजनादि-सम्बन्धी कितनां ही कथन ऐसा दिया हुआ है जो अध्याय के नाम के साथ संगत मालूम नहीं होता - और भी कुछ अध्यायों में ऐसी गड़बड़ी पाई जाती हैऔर इससे यह स्पष्ट है कि अध्यायों के विषय-विभाग में भी विचार से ठीक काम नहीं लिया गया । १७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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