SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [१२६] पात्रं परित्यजत्' ऐसा दिया है और उत्तरार्ध ज्यों का त्यों पाया जाता है-सिर्फ 'नरः' के स्थान पर 'भूयः' पद का उसमें भेद है। और इस सब पाठ-भेद से कोई वास्तविक अर्थ-भेद उत्पन्न नहीं होता। मालूम होता है भट्टारकजी ने हिन्दुओं के प्रायः उक्त पद्य पर से ही अपना यह पद्य बनाया है अथवा किसी दूसरे ही हिंदू ग्रंथ पर से उसे ज्यों त्यों उठाकर रक्खा है। और इसतरह पर दूसरों द्वारा कल्पित हुई एक व्यवस्था का अन्धा.ऽनुसरण किया है । भोजनप्रकरण का और भी बहुतसा कथन अथवा क्रियाकांड इस अध्याय में हिन्दू प्रथों से उठाकर रक्खा गया है और उसमें कितनी ही बातें निरर्थक तथा खाली वहम को लिये हुए हैं। देवताओं की रोकथाम । (१५) हिन्दुओं का विश्वास है कि इधर उधर विचरते हुये राक्षसादिक देवता भोजन के सत्व अथवा अन्नबल को हर लेते हैं--खा जाते हैं--और इसलिये उनके इस उपद्रव की रोकथाम के वास्ते उन्होंने मंडल बनाकर भोजन करने की व्यवस्था की है * । वे समझते हैं कि इस तरह गोल, त्रिकोण अथवा चतुष्कोणादि मंडलों के भीतर भोजन रख कर खाने से उन देवताओं की ग्रहण-शक्ति रुक जाती है और उससे भोजन की पूर्णशक्ति बनी रहती है । भट्टारकजी ने उनकी इस व्यवस्था को भी उन्हीं के विश्वास अथवा उद्देश्य के साथ अपनाया है । इसी से श्राप छठे अध्याय में लिखते हैं चतुरस्रं त्रिकोण च वर्तुलं चार्धचन्द्रकम् । कर्तव्यानुपूयण मंडलं ब्राह्मणादिषु ॥ १६४॥ * गोमयं मंडलं कृत्वा भोक्तव्यमिति निश्चितम् । पिशाचा यातुधानाधा भन्नादाः स्युरमंडले ॥ -स्मृतिरक्षाकर। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy