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________________ [१२३] आँखों पर पट्टी बाँध कर रहना होगा जिससे समुद्र दिखाई न पड़े, वह निकट की ऐसी तीर्थयात्रा भी नहीं कर सकेगा जिसका पर्वत-कूटों से सम्बंध हो, और अगर वह मंसूरी-शिमला जैसे पार्वतीय प्रदेशों का रहने वाला है तो उसे उस वक्त उन पर्वतों से नीचे उतर आना होगा, क्योंकि वहाँ रहते तथा कारोबार करते वह पर्वतारोहण के दोष से बच नहीं सकता । परन्तु ऐसा करना कराना, अथवा इस रूप से प्रवर्तना कुछ भी इष्ट तथा युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता । जैनसिद्धान्तों तथा जैनों के भाचार-विचार से इन धर्मों की कोई संगति ठीक नहीं बैठती और न ये सब धर्म, जैनदृष्टि से, गर्भिणीपति के कर्तव्य का कोई आवश्यक अंग जान पड़ते हैं । इन्हें भी भट्टारकजी ने प्रायः हिन्दू-धर्म से लिया है। हिन्दुनों के यहाँ इस प्रकार के कितने है। श्लोक पाये जाते हैं, जिनमें से दो श्लोक शब्दकल्पद्रुमकोश से नीचे उद्धृत किये जाते हैं"पोरं शवानुगमनं नसकृन्तनं च युद्धादिवास्तुकरणं त्वतिदूरयानं । उद्वाहमापनयनं जलधेश्च गाहमायुः क्षयार्थमिति गर्मिणिकापतीनाम्॥" -मुहूर्तदीपिका। "दहनं वपनं चैव चौलं वै गिरिरोहणम्। नाव मारोहणं चैव वर्जयेदर्भिणीपतिः॥" -रत्नसंग्रहे, गालवः । इनमें से पहले श्लोक में दौर ( हजामत ) आदि कमों को जो गर्भिणी के पति की भायु के क्षय का कारण बतलाया है वह जैनसिद्धांत के विरुद्ध है । और इसलिये हिंदू-धर्म के ऐसे कृत्यों का अनुकरण करना जैनियों के लिये श्रेयस्कर नहीं हो सकता जिनका उद्देश्य तथा शिक्षा जैन-तत्वज्ञान के विरुद्ध है । उसी उद्देश्य तथा शिक्षा को लेकर उनका अनुष्ठान करना, निःसंदेह, मिथ्यात्व का वर्धक है । खेद है भट्टारकजी ने इन सब बातों पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया और वैसे ही बिना सोचे समझे अथवा हानि-लाभ का विचार किये.दूसरों की नकल कर बैठे !! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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