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[१०४] योनिः स्याद्यावद् गंगां न पश्यति' दिया था जिसको भट्टारकबी ने 'निर्दयः पापभागी स्यादनंतकायिकं त्यजेत्' के रूप में बदल दिया है ! और इस तरह पर ऐसी दाँतन करने वाले को पापी श्रादि सिद्ध करने के लिये उन दाँतनों में ही अनंत जीवों की कल्पना कर डाली है ! ! जो मान्य किये जाने के योग्य नहीं। और न उसके आधार पर ऐसी दाँतन करने वाले को पापी तथा निर्दयी ही ठहराया जा सकता है । खेद है कि भट्टारकजी ने स्वयं ही दो पद्य पहले-६३ वें पद्य में-'वटस्तथा' पद के द्वारा, वाग्भट आदि की तरह, बड़ की दाँतन का विधान किया और ६४ वें पद्य में 'एताः प्रशस्ताः कथिता दन्तधावनकर्मणि' वाक्य के द्वारा उसे दन्तधावन कर्म में श्रेष्ठ भी बतलाया परंतु बाद को गोभिल के वचन सामने आते ही
आप, उनके कथन की दृष्टि और अपनी स्थिति का विचार भूल कर, एक दम बदल गये और आपको इस बात का भान भी न रहा कि जिस बड़की दाँतन का हम अभी विधान कर आए हैं उसीका अब निषेध करने जारहे हैं !! इससे कथन की विरुद्धता ही नहीं किंतु भट्टारकजी की खासी असमीक्ष्यकारिता भी पाई जाती है ।
तेल मलने की विलक्षण फलघोषणा। (३) दूसरे अध्याय में, तेलमर्दन का विधान करते हुए, भट्टारकजी ने उसके फल का जो बखान किया है वह बड़ा ही विलक्षण है । आप लिखते हैं
सोमे कीर्तिः प्रसरति वरा रोहिणेये हिरण्य देवाचार्ये तरणितनये वर्धते नित्यमायुः। तैलाभ्यङ्गात्तनुजमरणं दृश्यते सूर्यबारे
भौमे मृत्युर्भवति च नितरां भार्गवे वित्तनाशः ।। ८४ ॥
अर्थत्-सोमवार के दिन तेल मलने से उत्तम कार्ति फैलती है, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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