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१०.] अर्थात्-सामने सर्व देव, दाहिनी ओर व्यंतर ( पितर ) और पीठ पिछाड़ी सर्व ऋषि खड़े हैं अतः बॉई तरफ़ कुरला करना चाहिये।
और इस तरह पर यह सूचित किया है कि मनुष्य को तीन तरफ़ से देव, पितर तथा ऋषिगण घेरे रहते हैं, कुरला कहीं उनके ऊपर न पड़जाय उसीके लिये यह अहतियात की गई है । परंतु उन लोगों का यह घेरा कुरले के वक्त ही होता है या स्वाभाविक रूप से हरवक्त रहता है, ऐसा कुछ सूचित नहीं किया । यदि कुरले के वक्त ही होता है तो उसका कोई कारणविशेष होना चाहिये। क्या कुरले का तमाशा देखने के लिये ही ये सब लोग उसके इरादे की खबर पाकर जमा हो जाते हैं ? यदि ऐसा है तब तो वे लोग आकाश में कुरला करने वाले के सिर पर खड़े होकर भी तमाशा देख सकते हैं और छीटों से बच सकते हैं । उनके लिये ऐसी व्यवस्था करने की ज़रूरत ही नहीं-वह निरर्थक जान पड़ती है । और यदि उनका घेरा बराबर में हरवक्त बना रहता है तब तो बड़ी मुशकिल का सामना है-इधर तो उन बेचारों को बड़ी ही कवाइद सी करनी पड़ती होगी, क्योंकि मनुष्य जल्दी २ अपने मुख तथा आसन को इधर से उधर बदलता रहता है, उसके साथ में उन्हें भी जल्दी से पैंतरा बदल कर बिना इच्छा भी घूमना पड़ता होगा !! और उधर मनुष्यों का थूकना तथा नाक साफ करना भी तब इधर उधर नहीं बन सकेगा, जिसके लिये कोई व्यवस्था नहीं, की गई ! यह मल भी तो कुरले के जल से कुछ कम अपवित्र नहीं है। खैर, इसकी व्यवस्था भी हो सकेगी और यह मल भी बाई ओर फेंका जा सकेगा, पर मूत्रोत्सर्ग के समय---जो उत्सर्ग के सामने की ओर
पूर्व की ओर सारे देव रहते हैं तो फिर इस ग्रंथ में ही पूर्व की ओर मुँह करके मलत्याग करने को क्यों कहा गया है ? क्या कुरखा मूत्र
की धार से भी गया बीता है ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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