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________________ [१८] अन्याय है । क्या ऐसे पाप मंत्रों का जपना भी 'सामायिक' हो सकता है ? कदापि नहीं । ऐसे मारणादि-विषयक मंत्रों का आराधन प्रायः हिंसानन्दी रौद्र ध्यान का विषय है और वह कभी 'सामायिक' नहीं कहला सकता । भगवजिनसेन ने भी ऐसे मंत्रों को 'दर्मत्र' बतलाया है जो प्राणियों के मारण में प्रयुक्त होते हैं* भले ही उनके साथ में अर्हन्तादिक का नाम भी क्यों न लगा हो । और इसलिये यहाँ पर ऐसे मंत्रों का विधान करके सामायिक के प्रकरण का बहुत ही बड़ा दुरुपयोग किया गया है, इसमें जरा भी संदेह नहीं है। और इससे भट्टारकजी के विवेक का और भी अच्छा खासा पता चल जाता है अथवा यह मालूम हो जाता है कि उनमें हेयादेय के विचार अथवा समझ बूझ का माद्दा बहुत ही कम था। फिर वे बेचारे अपनी प्रतिज्ञाओं का पालन भी कहाँ तक कर सकते थे, कहाँ तक वैदिक तथा लौकिक व्यामोह को छोड़ सकते थे और उनमें चारित्रबल भी कितना हो सकता था, जिससे वे अपनी अशुभ प्रवृत्तियों पर विजय पाते और मायाचार अथवा छलकपट न करते! अस्तु। यह तो हुआ प्रतिज्ञादि के विरोधों का दिग्दर्शन । अब मैं दूसरे प्रकार के विरुद्ध कथनों की ओर अपने पाठकों का ध्यान आकृष्ट करता हूँ, जो इस विषय में और भी ज़्यादा महत्व को लिये हुए हैं और ग्रंथ को सविशेष रूपसे अमान्य, अश्रद्धेय तथा त्याज्य ठहराने के लिये समर्थ हैं। दूसरे विरुद्ध कथन । लेख के इस विभाग में प्रायः उन कथनों का दिग्दर्शन कराया जायगा जो जैनधर्म, जैन सिद्धान्त, जैन नीति, जैनादर्श, जैन आचारविचार अथवा जैनशिष्टाचार आदि के विरुद्ध हैं और जैनशासन के * यथाः - दुर्मत्रास्तेऽत्र विज्ञेया ये युक्ताः प्राणिमारणे ३६-२६ ॥ -भानिपुराण । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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