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________________ [ ८ ] अपायविचर्यं ध्यानं तद्वदन्ति मनीषिणः । अपायः कर्मणां यत्र सोपायः स्मर्यते बुधैः ॥ ३४ – १ ॥ इस लक्षण के सामने भट्टारकजी का उक्त लक्षण कितना विलक्षण बान पड़ता है उसे बतलाने की जरूरत नहीं । सहृदय पाठक सहज ही में उसका अनुभव कर सकते हैं। वास्तव में, वह बहुत कुछ सदोष तथा त्रुटिपूर्ण है और ज्ञानात्र के साथ उसकी संगति ठीक नहीं बैठती । (आ) इसी तरह पर पिण्डस्थ और रूपस्य ध्यान के जो लक्षण भट्टारकनी ने दिये हैं उनकी संगति भी ज्ञानार्णव के साथ ठीक नहीं बैठती । मट्टारकजी लिखते हैं- 'लोक में जो कुछ विद्यमान है उस सबको देह के मध्यगत चिन्तवन करना पिण्डस्थ ध्यान कहलाता है' और 'जिस ध्यान में शरीर तथा जीव का भेद चिन्तवन किया जाता है उसे रूपस्थ ध्यान कहते हैं' । यथा - แ SS यत्किचिद्विद्यते लोके तत्सर्वे देहमध्यगम् । इति चिन्तयते यस्तु पिण्डस्थं ध्यानमुच्यते ॥४६॥ शरीरजीवयोर्भेदो यत्र रूपस्थमस्तु तत् ॥ ४८ ॥ परन्तु ज्ञानार्णव में ऐसा कुछ भी नहीं लिखा । उसमें पिण्डस्थ ध्यान का जो पंचधारणात्मक स्वरूप दिया है उससे भट्टारकजी का यह क्षण लाज़िमी नहीं आता । इसी तरह पर समवसरण विभूति सहित देवाधिदेव श्री भर्हतपरमेष्ठी के स्वरूप चिन्तवन को जो उसमें रूपस्व ध्यान बतलाया है उससे यह 'शरीरजीवयोर्भेदः' नाम का लक्षण कोई मेल नहीं खाता # । * शायद इसीलिये सोनाजी को भाषार्थ द्वारा यह लिखना पड़ा हो कि “विभूतियुक्त अर्हन्तदेव के गुणों का चिन्तवन करना रूपस्थ ध्यान है ।" परन्तु उक्त लक्षण का यह भावार्थ नहीं हो सकता । १२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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