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घंटागा-कालप
तो पुरूप का दाहिना अंग प्रधान माना गगा है, इसीलिए पूजा प्रथम दाहिने अंग की दाहिने हाथ से की जाती है। लेखन, दान, मान, सन्मान, भेट समर्पण, प्रणाम आदि करने में दाहिने अंग की मुख्यता है और प्रकृति जन्य चेष्टाओं में भी दाहिना अंग विशा कार्य करता है, इसी कारण वीरता के कार्य में भी दाहिना हाथ मक्रिय कार्य करता है, इसीलिए घंटाकर्ण देव की मूर्ति में भी वायें हाथ में धनुप और दाहिने हाथ में चाग रहता है और दाहिनी भुजा के बल से धनुष्य डोरी की वाण महित जितनी विशेष खेंची जाय उतनी ही वह अधिक काम करती है । घंटाकर्ण देव के जो चित्र देखने में आये हैं उनमें भी दाहिने हाथ में वागा देखा गया है और चित्रकारों की तस्वीरों में पेट पर भुजाओं पर और घुटनों पर मंत्र लिखे हुए मिलते हैं । शरीर विभाग में इस तरह की योजना मरे यक्ष यनगियों के चित्रांग पर देखने में नहीं आई । हां ! यन्त्र सिद्ध करने के लिये देव चित्र के चरण में यत्र रख कर क्रिया करने का विधान है, जिसकी जगह आलम्बनीय चित्र में इस तरह की योजना लिखित कर देना यह बात समझ में नहीं माती । यन्त्र सहित चित्र को पास में रखने के हेतु या
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