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....... एक भाग्यवान् व्यापारी ... नुकसान ही अधिक हुआ; क्यों कि दुकान से जो रकम हाथ आती थी वह सबकी सब ग्रन्थों की वी. पी. याँ छुड़ाने में खर्च होती थी। दुकान बन्द पड़ गई। दुकान चलाने में इनका ध्यान ही नहीं लगता था। व्यापार और व्यवहार की अपेक्षा पढ़ने में ही इनकी अधिक दिलचस्पी थी।
बम्बई जैसे बड़े नगर में जाने से ही अपनी पढ़ाई की इच्छा पूरी होगी, ऐसी इनकी पूर्णतया धारणा बन गई और फिर बम्बई आकर बड़गादी में एक दुकान में एक साल तक नौकरी की।
ज्ञानलालसा पूरी होने के लिये ग्रन्थ चाहिये और ग्रन्थ खरीदने के लिये काफी द्रव्य चाहिये, इस प्रश्न ने इन्हें बड़े पशो पेश में डाल दिया और आखिरमें अधिक धन पाने के लिये उम्र की २५ वीं सालमें यानी सन १९१३ में इन्हों ने अपने भाई के साथ भागीदारी में एक दुकान शुरू की। उस समय झवेर भाई नरोत्तमदास एन्ड कंपनी के नाम से वह दुकान चल रही थी। वह भागीदारी पाँच साल यानी सन् १९९८ तक टिकी रही।
तकदीर ने चोगठ और उमराला इन गांवों का त्याग करना सिखा कर वह श्री हरगोविन्दजी को बम्बई ले आई थी। इस जगह इनकी तकदीर भी तरक्की करने लगी। उस समय बम्बई के पास मुलुंड में लाखों वार जमीन खाली पड़ी थी। केवल जंगल ही जंगल उस जगह था। आजकल के मुलुंड और उस समय क उजाड़ मुलुड में ज़मीन-आसमानका अंतर है।
“Steel is Prince or Pauper"
-Andren Carnejis.
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