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( ४७ ) हुई, यह एक रहस्य है। किन्तु यदि साम्प्रदायिक मनोवृत्तिका विश्लेषण किया जाय तो इस अनुद्घाट्य प्रतीत होने वाले रहस्यका उद्घाटन स्वयमेव हो जाता है।
स्थूल या साधारण लोग जब किसी आदर्शकी उपासना करते हैं तो साधारणतया वे उस आदर्शके एकाध अंशको अथवा उसके ऊपरी खोखलेसे ही चिपट कर उसीको सम्पूर्ण आदर्श मान बैठते हैं। ऐसी मनोदशाके कारण धर्मवीरके उपासक, धर्मका अर्थ अ. कली निवृत्ति समझकर उसीकी उपासनामें लग गए और अपने चित्तमें प्रवृत्तिके संस्कारोंका पोषण करते हुए भी प्रवृत्ति अंशका विरोधी समझकर अपने धर्मरूप आदर्शसे उसे जुदा रखनेकी भा. वना करने लगे। दूसरी ओर कर्मवीरके भक्त कर्मका अर्थ सिर्फ प्र• वृत्ति करके, उसीको अपना परिपूर्ण आदर्श मान बैठे और प्रवृत्तिके साथ जुड़ने योग्य निवृत्तिके तत्वको एक किनारे करके प्रवृत्तिको ही कर्म समझने बगे। इस प्रकार धर्म और कर्म दोनोंके उपासक एक दूसरेसे बिलकुल विपरीत आमने सामनेके किनारों पर जा बैठे। उसके पश्चात् एक दूसरेके श्रादर्शको अधूरा, अव्यवहार्य अथवा हानिकारक बताने लगे । परिणाम यह हुआ कि साम्प्रदायिक मानस ऐसे विरुद्ध संस्कारोंसे गढ़ा जा चुका है कि यह बात समझना भी अब कठिन हो गया है कि धर्म और कर्म ये दोनों एक ही सत्यके दो बाजू हैं । यही कारण है कि धर्मवीर महावीर और कर्मवीर कृष्ण के पंथमें परस्पर विरोध, अन्यमनस्कता और उदासीनता दिखाई पड़ती है। __ यदि विश्वमें सत्य एक ही हो और उस सत्यकी प्राप्तिका मार्ग एक ही न हो तो भिन्न भिन्न मागोंसे उस सत्यके समीप किस प्रकार
पहुँच सकते हैं, इस बातको समझनेके लिए विरोधी और भिन्न Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com