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दो शब्द।
प्रस्तुत पुस्तिका 'उत्थान' में प्रकाशित एक गुट राती निबन्ध का अनुवाद है। विद्वान् लेखक ने इसमें जो सूक्ष्म और विद्वत्तापूर्ण विचार प्रकट किये हैं, वे अवश्य बहुमूल्य हैं । साहित्य पर समाज की तत्कालीन परिस्थिति का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता, यही कारण है कि एक ही संस्कृति का प्रतिपादन करने वाला साहित्य सामयिक परिवर्तन के कारण अनेक रूपों में पाया जाता है । जैन साहित्य के विभिन्न रूपों का भी यही कारण है । ऐसा सदा से होता रहा है और होता रहेगा। ग्रंथकारों का इसमें शुभाशय ही होता है।
आज साम्प्रदायिकता का जो नग्न ताण्डव होरहा है उसने वास्तविक . धर्म का गला घोंट डाला है और धर्मसाध्य आत्मिक विकास को रोक कर एक प्रकार की नास्तिकता को जन्म दिया है। जैनों का अनेकान्तवाद । प्रारम्भ से ही इस प्रकार की साम्प्रदायिकता का घोर शत्रु रहा है और उसने उसे रोकने का भरसक प्रयास किया है। प्रस्तुत रचना ऐसी ही एक रचना है जो धर्म और कर्म की वास्तविकता की व्याख्या करके दोनोंके बीच जबर्दस्ती खड़ी कीजाने वाली दीवाल को तोड़ गिराती है । आशा है पाठक इससे लाभ उठायेंगे।
इस पुस्तक के प्रकाशन का व्यय फलौदी निवासी श्रीमान् नथमलजी सा० वैद ने सहन किया है, अतएव हम उनके आभारी हैं । मूल लेखक विद्वद्वर्य पं० सुखलालजी, प्रोफेसर हिन्दू विश्वविद्यालय, के भी हम ऋणी हैं जिन्होंने अनुवाद करने की आज्ञा देकर हमें कृतार्थ किया है।
-प्रकाशक
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