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वृत्चान्तोंका आदर्श है। इसमें भोग है, युद्ध है और तमाम दुनियावी प्रवृत्तियाँ हैं । परन्तु यह प्रवृत्तिचक्र जनसाधारणको नित्यके जीवनक्रममें पदार्थपाठ देने के लिए है। महावीर और बुद्धके जीवनवृत्तान्त इससे बिलकुल भिन्न प्रकारके हैं । इनमें न भोगकी धमाचौकड़ी है और न युद्धकी तैयारी ही। इनमें तो सबसे पहले अपने जीवनके शोधनका ही प्रश्न उपस्थित होता है और उनके अपने जीवनकी शुद्धि होनेके पश्चातही, उसके फलस्वरूप प्रजाको उपयोगी होनेकी बात है । राम और कृष्णके जीवनमें सत्वसंशुद्धि होने पर भी रजोगुण मुख्यरूपसे काम करता है और महावीर तथा बुद्धके जीवनमें राजस भंश होनेपर भी मुख्य रूपसे सत्वसंशुद्धि काम करती है । अतएव पहले आदर्शमें अन्तर्मुखता होने पर भी मुख्यरूपसे बहिर्मुखता प्रतीत होती है और दूसरेमें वहिर्मुखता होने पर भी मुख्यरूपसे अन्तर्मुखताका प्रतिभास होता है । इसी बातको यदि दूसरे शब्दोंमें कहें तो यह कह सकते हैं कि एक आदर्श कर्मचक्रका है और दूसरा धर्मचक्रका है । इन दोनों विभिन्न श्रादशोंके अनुसार ही इन महापुरुषोंके संप्रदाय स्थापित हुए हैं । उनका साहित्य भी उसी प्रकार निर्मित हुआ है, पुष्ट हुअा है और प्रचारमें आया है । उनके अनु. यायी वर्गकी भावनाएँ भी इस आदर्शके अनुसार गढ़ी गई हैं और उनके अपने तत्त्वज्ञानमें तथा उनके मत्थे मढ़े हुए तत्त्वज्ञानमें इसी प्रवृत्तिनिवृत्तिके चक्रको लक्ष्य करके सारा तंत्र संगठित किया गया है। उक्त चारों ही महान पुरुषोंकी मूर्तियाँ देखिए, उनकी पूजाक प्रकारों पर नजर डालिए या उनके मंदिरोंकी रचना तथा स्थापत्य का विचार कीजिए, तो भी उनमें इस प्रवृत्तिचक्र और निवृत्तिचक्र की भिन्नता साफ दिखाई देगी। उक्त चार महान पुरुषोंमें से यदि
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