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________________ vreorg Brgreer श्री धर्म प्रवर्तन सा२, गढदेशादिक उन्नयथीए ॥१०॥ उपनय नाष्या एम ॥ अध्यात्मनय ॥ __ कही परीक्षा जश खदोए ॥१५॥ अर्थः-स्वजाति उपचरित असन्त व्यवहार । जाणो ओळखो, संबंधी कल्पन जे हुं पुत्रादिक श्हां हुँ मारा एंव जे पुत्रादिकने विषे कहे, एटले पुत्रादिकने शरीर आत्म पर्याय रूपे स्वजाति ले. पण कल्पित ने अन्य तेने उपचारे पोताना कहीए. ते पेहेलो नेद ॥ १७ ॥ हवे विजाति उपचरित असनूत व्यवहार ते वस्त्र आनरणादि मारां कहेवां एटले वस्त्र आन्नरणादि वस्तु जीवने पर. वळी विजाति स्वजात नथी, तेने 5 उपचारे पोताना कहीए ए बीजो नेद वळी स्वजाति वि जाति उपचरित असद्भूत व्यवहार ते गढ, नग्र, देश, ए राज्य मारु ले के० गढ, देश, गाम, नग्र, प्रमुखने विषे जीव १ ते स्वजाति डे अने देशादिक राज्यऋद्धि प्रमुख डे, ते विजाति के ए बेहु वस्तु पोताथी अन्य ने तेनो पोतापणे उपचार ए त्रीजो नेद ॥ १७ ॥ ए रीते उपनये त्रण त्रण कह्या. तेमां पुत्रादिक, वस्त्र, गढ, देशादिक वस्तु उपचारे पोतानी कही पण वस्तुगते पर ले पोतानो तो एक शुद्ध ( चेतन साक्षात् परमात्मा सरखो चिदानंद ज्योतिरूप अ5 रूपी, अमूर्ति, अचळ, अखंग, अव्यावाधानंदमयी चिन्ह , मूर्ति रूप दे तेनी उळखाण जाणपणुं अध्यात्म नयरूपे १ LABEDirgotto DOG Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034802
Book TitleDharm Pravarttan Sara Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandbhai Swarupchand Shah
PublisherRatanchand Laghaji Shah
Publication Year1910
Total Pages344
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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