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श्री धर्म प्रवर्तन सार.
............ . केवळदर्शन तेरमा गुणगणे पामे. “ पूरण प्रकाश पावै" :
के इहां परिपूर्ण प्रकाश पामे एटले लोकने अने अलो७ कने जीवने अने अजीवन रूपीने अने अरूपीने वळी उ. त्पाद, व्यय, अने ध्रुव युक्त त्रणे काळनी वर्त्तनाने एक समये जाणे. “ पूरणके परचै" के० परिपूर्ण आत्मानना परिचय थकी “नयो निरदोर आहि" के० शहां चौगति नवब्रमणनी दोरनो अंत आव्यो एटले तेथी मुक्त थया. " करनो न कतु और " के एक शुद्धात्म स्वरूपनो अनुन्नव पोतीका स्वन्नावे थाय जे ते सिवाय तेमने बीजुं है कांश पण कृत्य करवानुं बाकी रहे नहीं. “ एसो” के 6 उपर गवेख्या तेवा विश्वनाथ के जगतना नाथ ए सर्व इ देव आपणे वांदवा, पूजवा, ध्यान करवा योग्य " तां
ही" के० तेमने " बनारसी अरचै" के बनारसी दास र श्रावक पूजे.
ए उपर कह्यो ते उपदेश पाम्यां शुद्ध व्यवहार श्रावे शुद्धोद्विविधः के० तेना बे नेद, तेमां पेहेलो नेद व६ स्तुगत व्यवहार. धर्मास्ति कायादि व्याणां स्वस्वचलण
सहकारादि जीवस्य लोको लोकादि ज्ञानादिरूप" के सर्व अव्यनी स्वरूप रूप शुद्ध प्रवृत्ति जेम धर्मास्तिकाय
नो चलण सहायता, अधर्मास्तिकायनी स्थिर सहायता, हे आकाशनी अवगाहकता, काळनी वर्तना, पुद्गळनी मिल , न, विखरण, समण पमणता, जीवनी लोका लोक श्रादि है
जाणवू, देखq ते केवळज्ञान, केवळदर्शनता इत्यादिकने PLACEmorrow.com
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