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________________ GIRGAR GARGARGGER. PROPRAGreAGRAAREERSOMSAGTAGreg शणनाण चरण तप तपिया, क्षायक समकित सुंधुं जपीया; वेदक अवसर खपीया ॥ तीहां चेतन समन्नावनो रंगी, १ आतम गुण श्रेणी दृढ जंगी, निर्विकल्प एकंगी॥ रागष , मोह सब लागे, अशुद्ध परिणति अळगी लागे; दायक १ चरण तीहां जागे ॥ वीतराग क्षीण मोह पुवादश्म, त्यां है त्रण कर्म बाळी करे जस्म; सविसंत परमानंद रश्म ॥२॥ झान बोध अनुन्नव विण नाही, अनुन्नव विण पर बोके नांहीं, पर डोमे समकित त्यांही ॥ धर्म अनंतनुं बीज एG प्यारं, सुख दुःख सरखं लागे खारु; नेद ज्ञान वीण अंधारु ॥ अनुन्नव शुद्ध घट अंतर जागे, बंध सत्ता कर्म चेतन त्यागे,त्यां रागद्वेष मोह नागे।केवळनाण दर्शण तीहां पामे, अनंतु लोकालोक सब सामे; ते ज्ञान धर्म हित कामे॥३॥ बीजा पदमां ते सिद्ध कहीए, बाकी आठ सिद्ध साधन ग्रहीए; अरिहंत संजीरुढे लहीए ॥ आचार्य ते पंचाचारी, उपाध्याय पढे श्रुत नारी; साधु विरति बलिहारी ॥ दर्शण सामान्यने ज्ञान विशेष, उपयोग स्थिर त्यां चरण सहेश; तप निर्जरा प्रवेश ॥ श्म नवपद सिद्धचक्रने पूजे, सूरनर उ तीहां दिल रीजे; ज्ञान शीतळने सीके ॥४॥ थोय जोडो ॥२॥ जो॥ वीरजीणेसर वंदिए ए प्रगटयो वीरगुण जासतो , ॥ए देशी॥ १ शुद्धानंद निज वंदिये ए, परम देव प्रधानतो ॥ मोक्ष है कारण। एह डे ए, उपादान रुमी रीततो ॥ निमित्त कारण (२३४) B arriawwarRAON GARLGDGornsraore Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034802
Book TitleDharm Pravarttan Sara Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandbhai Swarupchand Shah
PublisherRatanchand Laghaji Shah
Publication Year1910
Total Pages344
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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