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________________ अध्यात्म यावीशी. ORAGAR EIGAR GARIMARGIGARoma १ सार स्थिर चउगति जमे, पुःख सहे वारंवाररे ॥ क्लेश ह ६ करी काळ निरगमे, अहं ममत्व अपाररे ॥ न० ॥५॥ निज वस्तु धर्म रूचे नहीं, अंतरदृष्टि न थायरे परवस्तु धर्मे लागी, तीहां मिथ्यात्व सदायरे ॥ नमि० ॥६॥ सदगुरु वचनथी वेगळो, माने पुद्गलने जीव रे ॥ द्रव्य क्रियातप आदरे, तेथी काज नहीं नहि ए शीवरे ॥ न-3 मि ॥ ७ एम समजी अन्य संग तजो, लजो छानने ध्यानरे ॥ निर्विकल्प रस पीजीए, प्रगटे अनुन्नव ज्ञानरे ॥ नमी ॥ ॥ एह शीवसाधन आदरो, आराधो नवि संतरे ॥ अन्य तजतां वीर्य वाधशे, ज्ञान शीतळ एक के 3 तरे ॥ नमी० ॥ ए ॥ संपूर्ण. ॥ स्तवन २२ मुं । ॥सांनळजो मुनि संयम रागे ॥ ए देशी. नेमि प्रन्नु नीम को सही दा, उदयिक नाव नही चाखु रे॥ परवस्तु अग्राह्य चेतनने, सर्व विरति एम राखं॥ नेमि प्रन नीम कयों सही दा० ॥ ए आंकणी ॥ गाथा , ॥१॥ कारण कार्य ते निज स्वन्नावे, अकारण परनावे रे॥ १ क्षय उपशम शुद्ध कारण कहीए, कार्य ते दायक नावे रे ॥ नेमिः ॥२॥ ए विण कारण कार्य ते नाही, अरिहंतने सिद्ध पद-रे ॥ नविजन समजीने आदरजो, वचन ए नेमि जीणंद-रे ॥ नेमि० ॥३॥ कारण ते कार्यने ध्यावे, सोही कार्यने पावे रे ॥ कारण कार्य नहीं प्रवर्ते, ते कार्य 2 रूप नहीं थावे रे ॥ नेमिः॥४॥ कारण सो कार्ये प्रवर्ते, 6 ___(२२४) BaRGROGRAM GGrenoNG ArranGARAR G Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034802
Book TitleDharm Pravarttan Sara Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandbhai Swarupchand Shah
PublisherRatanchand Laghaji Shah
Publication Year1910
Total Pages344
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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