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________________ B શ્રી ધર્મ પ્રવર્તન સાર, मीजी ॥ द्वितिय जाव उन्मूलन ताहरे, अचळ अबाधित रामीजी ॥ श्रभिनंदन जिन आनंद पूरणो ॥ ए क ॥ गाथा ॥ १ ॥ ज्ञानानंदी स्वभावे पामीया, गुणी पर्याय अनंतजी। निज निज व्यक्तिरे आणंद भिन्नता, आणंद व्हेर अनंतजी ॥ निं० ॥ २ ॥ निर्मळ व्यक्तिरे संपत्ति ताहरे, मारे तुज सम शक्तिजी ॥ समळ उपाधि जर्यो मुज श्रातमा, तेथी न प्रगटे व्यक्तिजी ॥ निनंदन० ॥ ३ ॥ तेथी तुं सिद्ध सेवक हुं ताहरो, तुज गुणरंगी अनंगजी ॥ तुज गुणज्ञान ध्यान मुज मन वस्यो, रुचे नहीं अन्य संगजी ॥ ि ॥ ४ ॥ चिन्ह मूर्त्ति अंतरमां थापीए, संवर जळ करीए पखाळजी | अनुभव रमण परमपद पूजतां, पामे सिद्धपद लालजी || अभिनंद० ॥ ५ ॥ नाचो राचो निरंजन मंदिरे स्तुति स्वरूप उपयोगजी ॥ तेथी ज्ञान शीतळ याय आ पं, ए पूरण आनंद योगजी || अभिनंद० || ६ || संपूर्ण. स्तवन पांचमुं ॥ ॥ राग रामग्री ॥ कमखो ॥ सुमति शुद्ध चेतना, मूळ रूप देखना, तेहशुं सगपण जोरुना ए ॥ मुजमन ते वसी तेनो हुं बहु रसी, स्वामी नाथ तुमने कीया ए ॥ सुमति शुद्ध चेतना० ए आंकर्ण। ॥ गाथा ॥ १ ॥ कुमति रीसाइ गइ डूख दिन लई गई, नमतर जाग्यो अनादिनो ए ॥ सुख संपत्तिनयी वृद्धि संताननी, जोग जोगी हुई आतमाए ॥ सुमती० ॥२॥ ( २०८ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034802
Book TitleDharm Pravarttan Sara Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandbhai Swarupchand Shah
PublisherRatanchand Laghaji Shah
Publication Year1910
Total Pages344
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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