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________________ GORG.RAGHAR eKaranore GARL SINGERRORS sexreLGRAGRAAR RAGARH શ્રી ધર્મ પ્રવર્તન સાર. १३ ॥ जाणे जीव प्रव्य क्षेत्र काळ नावथी, अव्य अखंग अविनाशी त्रणे काळरे, देवथी असंख्य प्रदेशी कह्यो, काळथी अगुरुलघु परिणति रसाळरे ॥ श्रुतः ॥ १४ ॥ ना६ वथी केवळनाण दर्शण सही, इत्यादि दायक लब्धि अ नंतरे, सत्ताए संग्रह नयथकी, करो शब्द पामी संग्रह । एवंनूतरे ॥ श्रुतः ॥ १५ ॥ ध्यान धर्म शुक्ल दोय ध्याश्ए, तिहां श्रुतझान उपयोग घटमां रे, एहि ज्ञान गज गर्जारव से करे, मोहादि उपाधि नागे समाधि वरे झटमारे ॥ श्रुत० ॥ १६ ॥ समाधि हेतु एकश्रुत पूजो नहि, ज्ञान शितळ ए वचन प्रमाणरे, एम जाणीने नविजन खप करो, लहो नावश्रुत अनुन्नव नाण रे ॥ श्रुत० ॥ १७ ॥ समाप्त.॥ ॥ दुहा ॥ श्रुत शान ए वर्णव्यो, धर्म कहीजे तेह; विरति झान फळ आदरी, टाळो आवरण खेद ॥१॥ विरति देशथी सर्वथी, जव्य नावे विचार; व्य विरतिथी स्वर्ग, नाव शिव पद सार ॥२॥ देश विरति श्रावक कह्या, सर्व विरति अणगार; पंच नेद ने तेहना, यथाख्यात शिव सार ॥३॥ अणुव्रतादिक नेदथी, श्रावकनां व्रत बार; गुरु मुखे नवि नच्चरो, समकित मूळ नरनार ॥॥5 & श्राद्ध धर्म हवे वर्णवू, आगळ ढाळ रसाळ; हे जाणिने नवि आदरो, विरति मुख्य नदि बाळ ॥५॥ GROGRAGRAGOLGAPAGALGAR (१७३) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034802
Book TitleDharm Pravarttan Sara Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandbhai Swarupchand Shah
PublisherRatanchand Laghaji Shah
Publication Year1910
Total Pages344
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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