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________________ श्री घर्भ प्रवर्तन सा२. Gork GAGROGRAR GOA. दुहा. ६ गुरु उपकारी अति नला, जणाव्युं जीव स्वरुप; साधक बाधक वारता, दाख्युं ज्ञान अनूप. ॥१॥ ६ धर्म तत्व त्रोजो हवे, ना वचन रसाल: ६ स्थिर चित्ते नवी सांभळो, श्रधा करो विशाळ.॥२॥ धर्म मूळ श्रुतज्ञान ए, बीजुं चारित्र धर्म; ६ श्रुत दिपक घट अंतरे, मिथ्यामती टळे नर्म.॥३॥ श्रुत ज्ञान व्य नावथी, आराधो नले नाव. ६ भव्य श्रुत कारण नावन, नाव नवो दधि नाव.॥४॥ गुण स्थानक चोथु इहां, ग्रंथी नेद करी पाय; नहिं तो अज्ञानी रहे, धर्म न तेद कहाय. ॥५॥ ॥ ढाल त्रीजी ॥ ॥ आदि जीणंद मया करो-ए देशी ॥ श्रुतज्ञान घटंतर पाश्ने, उपयागे मोह खपावोरे, बाह्य वृत्तिए परिणमन मोह बे, . त्यां राग द्वेष वृद्धि न अन्नावोरे ॥ श्रुत० ॥१॥ घटगत निज चेतन उळखो, गुण अनंतनो कंदरे, निरुपद्रवस्थान अंतर विषे, अनुनविने करो श्रद्धाए जीणंदरे ॥ श्रुतः ॥२॥ सर्व देवनो देव निज आत्मा, सर्व गुरुनो गुरु उपयोगरे ॥ धर्म वस्तु स्वनावे जे सहि, सत्ताए सिद्ध अनादि अनंत नंगरे १ ॥ श्रुतः ॥ ३ ॥ शक्ति व्यक्ति लहीए श्रुतज्ञानथी, , हे श्रुतज्ञानी थाय वितरागरे ॥ वितराग श्रुतझाने केवळ लहे, ___(१७१) ReAGARAMSANSAGARAGreAGre GreAGre GrRASARAGRAT Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034802
Book TitleDharm Pravarttan Sara Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandbhai Swarupchand Shah
PublisherRatanchand Laghaji Shah
Publication Year1910
Total Pages344
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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