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________________ SawaimartGGAgrowoardarama श्री धर्म प्रवर्तन सार, १ करतां शुन्न क्रिया बोले अनेक ग्रंथ ॥ जगतः ॥२४॥सद्-९ गुरु श्रवण हेतु अति नलारे, दिये अढलक बोधनुं दान ॥ सुणि मनन चितवन घटतर करिरे, निंद्राशय न टाळी जागृत थै पामे ज्ञान ॥ जगतः ॥ २५ ॥ जागृत दशा जब जाणीयेरे, निज ने पर बेहु नासे निन्न ॥आप स्वरुपी आप मांरे, व्यापक परिणमन थाय तलीन्न ॥ जगतः ॥ २६ ॥ निज पर निन्न नेद जीहां नहिरे, तिहां एकांते पर पोतार्नु मनाय ॥ विरती थेने ते धर्म करणी जो करेरे, नहि शिव ३ १ हेतुए मिथ्यात्व कहाय ॥ जगत ॥ २७ ॥ निज पर नेद @ निन्न नासे जीहांरे, तिहां आत्म हेतु कहेवाय ॥ ज्यारे त्यारे पर परिहरेरे निजरूपे पूर्ण सिद्धता पाय ॥ जगतः ६॥२७॥ आत्मरुचि प्यारा तुमे अंतर नजोरे, उदे पामशे ६ 9 अपरिताप ज्ञाननाण ॥ तिमिरांधकार नागे तिहां रे, पामो अनुनवनूवने केवळनाण ॥ जगतः ॥ २ ॥ एम आत्म ७ स्वरूपने जाणीयेरे, साधक बाधक वृत्तिनो विचार ॥ बाधक नावने परिहरी रे, लहीये साधकताए सिद्ध पद सार ॥ ६ जगत० ॥ ३० ॥ गुरु दिनकर सम ज्ञाने दिपतारे, करे स्त्रपरने प्रकाश ॥ पर परपणे करीने लहेरे, स्व अनुन्नवे सिद्ध पद खास ॥ जगतः ॥३१॥ए गुरुना गुणगण गाइएरे, हुंतो सेवक सद्गुरुनो दास ॥ ज्ञानशितळ करी दाखी. 4 योरे, कीधो उपदेश जीव गुणनो समास ॥ जगत० ॥३॥ समात ॥ ( १७०) 6 Design662525 ResearBGOLGreer@GOO.GLAGrenore Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034802
Book TitleDharm Pravarttan Sara Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandbhai Swarupchand Shah
PublisherRatanchand Laghaji Shah
Publication Year1910
Total Pages344
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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