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- શ્રી ધર્મ પ્રવર્તન સાર. संख्या जिन वचने सिध्धांत साक्षीये पांचमा अनंते कही | डे ते सर्व अवगाहना मय अनंता सिध्ध नगवान प्रत्ये था ग्रंथनी पूर्णता अवसरे ग्रंथकर्ता कहे जे के मानजो . प्रणाम है, कहेतां पंच अंग एटले बे हाथ वे पग अने मस्तक. ए पंच अंगने नम्रता पूर्वक विनयपूर्वक बहुमान पूर्वक, नक्तिपूर्वक, प्रमोदपूर्वक, उत्साहपूर्वक, गुणरागीपणे पर श्राकंदा दूषणे वर्जित थश्ने, अंतरदृष्टि योगे, त्रिकरण जोगे प्रणाम है कहेतां मारो नमस्कार बे. ते हे सिध्ध परमात्मा मानजो. कहेतां स्वीकारजो, मारी विनति अवधारजो.(३)
ग्रंथनी पूर्णताना दुहा. नेद ज्ञानविण नविकने, नहीं वस्तु उळखाण ॥ वीपरित श्रद्धा त्यां लगे, समजो चतुरसुजाण ॥१॥ नेदज्ञानथी नावीए. जम चेतन दुफार ॥ समकित शुद्ध समाचरे, निज वस्तु निरधार. ॥२॥ तेहीज सिद्ध स्वरुप बे, तेहीज शीव सुख कंद ॥ ध्यावो गावो विजना, एथी टळेनवफंद ॥३॥ निज सवळे सुख संपत्ति, अवळे दुःख अनंत ॥ रागद्वेष अवळी दशा, तजतां सिद्ध महंत. ॥४॥ शिवपद सोही ज्ञानमां, ध्यान ज्ञाननी मांही; ॥ ध्याता ध्येयनी एक्यता, पूरण साधन त्यांही ॥५॥ धर्म प्रवर्तन सार ए, ग्रंथ रच्यो गुणखाण; ॥ ज्ञानी वचना लंबने, पूरण कीयो परमाण ॥६॥
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