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________________ भगवान् महावीर ५२ अपने चरण कमलों से पृथ्वी को पवित्र करते हुए एक बार “भगवान महाबीर" राजगृही नगरी में पहुँचे । इस स्थान पर उन्हें “गौशाला" नामक एक व्यक्ति शिष्य होने की इच्छा से मिला । महाबीर उस समय किसी को भी शिष्य को तरह ग्रहण न करते थे । क्योंकि उस समय तक उनको कैवल्य की प्राप्ति नहीं हुई थी भगवान् महाबीर यह जानते थे कि जब तक मनुष्य अपने आपका पूर्ण कल्याण नहीं कर लेता तब तक वह अपनी सामर्थ्य से दूसरे का दारिद्रथ हरण करने में असमर्थ होता है। और इसी कारण जब गौशाला ने उनसे शिष्य बना लेने की याचना की तो उन्होंने मौन ग्रहण कर लिया, तो भी गौशाला ने प्रभु का साथ न छोड़ा, उसने महाबीर में गुरु बुद्धि की स्थापना कर भिक्षा के द्वारा अपना गुजर करना प्रारंभ किया। सत्य को प्राप्त करने की उसमें कुछ अभिलाषा थी, आत्मशक्ति का विकास करने के निमित्त योग्य पुरुषार्थ करने को वह प्रस्तुत था, पर दुर्भाग्य से उस समय भगवान महाबीर उपदेश के कार्य से बिलकुल विमुख थे। उस समय आत्मचिन्तन और कर्मनिर्जरा के सिवाय उनका दूसरा कार्य न था, ऐसे अवसर में गौशाला ने महाबीर के सम्बन्ध में अपनी मनोकल्पना से जो बोध ग्रहण किया वह विल्कुल एक तो और अनिष्ट कर साबित हुआ, वह कई बार भगवान को किसी भावी घटना के विषय में पूछता, महाबीर अवधिज्ञान के बलसे वही उत्तर देते जो भविष्य में होने वाला होता था। उनका कथन बिल्कुल "बावन तोला, पाव रत्तो," उतरते देख कर गौशाला ने यह सिद्धान्त- निश्चय कर लिया कि भविष्य में जो कुछ होने वाला है, वही होता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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