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________________ भगवान् महावीर ४२ में दया के अवतार होते थे, वे ही इस समय में पाशविकता की प्रचण्ड मूर्ति की तरह छुरा लेकर मूक पशुओं का वध करने के लिए तैयार रहते थे। विधान बनाना तो इन लोगों के हाथ में था ही जिस कार्य में ये अपनी स्वार्थ लिप्सा को चरितार्थ होती देखते थे, उसी को विधान रूप बना डालते थे। मालूम होता है कि "वैदि की हिंसा हिंसा न भवति" आदि विधान उसी समय में उन्होंने अपनी दुष्ट-वृति को चरितार्थ करने के निमित्त बना लिये थे।" ____ सारे समाज के अन्दर कर्म-काण्ड का सार्व-भौमिक राज्य हो गया था। समाज वाह्याडम्वर में सर्वतोभाव फँस चुका था। उसकी आत्मा घोर अन्धकार में पड़ी हुई प्रकाश को पाने के लिए चिल्ला रही थी। किन्तु कोई इस चिल्लाहट को सुनने वाला न था। इस यज्ञ-प्रथा का प्रभाव समाज में बहुत भयङ्कर रूप से बढ़ रहा था। यज्ञों में भयङ्कर पशुवध को देखते देखते लोगों के हृदय बहुत क्रूर और निर्दय हो गये थे । उनके हृदय में से दया और कोमलता की भावनाएँ नष्ट हो चुकी थीं। वे आत्मिक जीवन के गौरव को भूल गये थे। अध्यात्मिकता को छोड़ कर समाज भौतिकता का उपासक हो गया था। केवल यज्ञ करना और कराना ही उस काल में मुक्ति का मार्ग समझा जाने लगा था । वास्तविकता से लोग बहुत दूर जा पड़े थे। उनमें यह विश्वास दृढ़ता से फैल गया था कि यज्ञ की अग्नि में पशुओं के मांस के साथ साथ हमारे दुष्कर्म भी भस्म हो जाते हैं। ऐसी अप्रमाणिक स्थिति के बीच वास्तविकता का गौरव समाज में कैसे रह सकता था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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