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________________ ४३५ भगवान् महावीर पक्षों में खूब वाक् युद्ध होता है और अन्त में पूरी फजीहत के साथ उस धर्म के अनुयायी दो दलों में विभक्त हो जाते हैं। कुछ समय तक उन दोनों दलों में संघर्ष चलता है, तत् पश्चात् उन दलों में और भी भिन्न भिन्न मतमतान्तर और विभाग पैदा होते हैं और वे आपस में लड़ने लगते हैं और इस प्रकार कुछ शताब्दियों तक लड़ झगड़ कर या तो वे अपने अस्तित्व को खो बैठते हैं या जीवन मृतकदशा में रह कर दिन व्यतीत करते हैं। उपरोक्त का सारा कथन किसी एक धर्म को लक्ष्य करके नहीं कहा गया है प्रत्युत प्रत्येक धर्म में किसी न किसी दिन ऐसा दृश्य अवश्य दिखलाई पड़ता है। संसार के सभी महान् धर्मों में इस प्रकार के अवसर आये हैं इस बात का साक्षी इतिहास है। जैन-धर्म के इतिहास में भी ये सब बातें बिल्कुल ठीक उतरती हुई दिखाई देती हैं। प्रारम्भ में ब्राह्मण लोगों के अनाचारों से समाज में जो अत्याचार प्रारम्भ हो रहे थे उनका प्रतिकार जैन-धर्म ने किया । भगवान् महावीर ने इन अत्याचारों के प्रति बुलन्द आवाज उठाकर समाज में शान्ति की स्थापना की। उसके पश्चात् उन्होंने संसार को उदार जैन-धर्म का सन्देश दिया। भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् सुधर्माचार्य के हाथ में जैन-धर्म की वागडोर आई इन्होंने भी बड़ी ही योग्यता से इसका संचालन किया। इनके समय में भी इनके व्यक्तिगत प्रभाव से समाज में किसी प्रकार की विशृंखला पैदा न हुई। सुधर्माचार्य के पश्चात् जम्बूस्वामी के हाथ जैन-धर्म की बागडोर गई इन्होंने भी बहुत सावधानी के साथ इसका संचालन किया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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