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________________ ४०१ भगवान् महावीर. इन सब बातों को देखने पर किसी को यह कहने में आपत्ति नहीं हो सकती कि जैन धर्म सामान्यतः सब धर्मों का और विशेषतः आर्य धर्म का उच्च सोपान है। इससे धर्म के विशिष्ट अङ्गों का साम्यवस्थान जैन धर्म में यथार्थ रीति से नियोजित किया गया है और उसकी रचना मनुष्य को केन्द्र समझ कर की गई है। जैन धर्म का अध्ययन करने से यह बात स्पष्ट मालूम होती है कि बौद्धिक अङ्ग को किनारे न रख कर उस रचना में धर्मत्व को किसी प्रकार की क्षति न पहुँचे, इस पद्धति से उसका विकास किया गया है। ईसाई धर्म की अपेक्षा इस विषय में जैन धर्म की जड़ अधिक बलवान है । ईसाई धर्म की रचना बाइबल के आधार पर की गई है। अतः उसने बौद्धिक प्रश्न पर विशेष उहापोह नहीं किया गया है। कारण इसका यह मालूम होता है कि ईसाई धर्म का उद्देश्य केवल मनुष्य की भावना पर ही कार्य करने का था। तदनन्तर उसने एरिस्टोटल के वैज्ञानिक तत्वों को अङ्गीकार किया और आज तक भी वह उन तत्वों को धर्मतया मानता है । पर उन तत्वों का आधुनिक शास्त्रीय प्रगति के तथा बौद्धिक विकास के साथ मिलान नहीं हो सकता । यद्यपि भावना की दृष्टि से ईसाई धर्म ने अन्य धर्मों को मात कर दिया है तथापि मेरे मन्तव्य के अनुसार आधुनिक दृष्टि वाले लोगों को केवल भावनाओं पर ही अवलम्बित रहना रुचिकर न होगा, क्योंकि उनका सिद्धान्त है कि धर्म को आधिभौतिक शास्त्र की गति से ही दौड़ना चाहिये । इन्हीं सब बातों का संक्षिप्त सारांश यही निकलता है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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