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________________ भगवान् महावीर ३७० मान, माया, और लोभ इन चार कषायों का संहार, इन्द्रियों का संयम, ममता का परिहार, समता का प्रादुर्भाव, मनोवृतियों का निग्रह, चित्त की निश्चलता, आत्म स्वरूप की रमणता, ध्यान का प्रवाह, समाधि का आविर्भाव-मोहादिकर्मों का क्षय और अन्त में केवलज्ञान तथा मोक्ष की प्राप्ति, इस तरह आत्मोन्नति का क्रम अध्यात्म शास्त्रों में बताया गया है। ___ . 'अध्यात्म' कहिए चाहे 'योग' दोनों बातें एक ही हैं। योग शब्द 'युज' धातु से बना है। जिसका अर्थ है 'जोड़ना' । जो साधन मुक्ति के साथ सम्बन्ध जोड़ता है उसको योग कहते हैं। ____ अनन्त ज्ञान स्वरूप सच्चिदानंदमय आत्मा कर्मों के संसर्ग से शरीर रूपी अन्धेरी कोठरी में बंद हो गया है। कर्म के संसर्ग का मूल कारण अज्ञानता है, सारे शास्त्रों और सारी विद्याओं के सीखने पर भो जिसको आत्मा का ज्ञान न हुआ हो उसके लिये समझना चाहिये कि वह अज्ञानी है। मनुष्य का ऊँचे से ऊँचा ज्ञान भी आत्मिक ज्ञान के बिना निरर्थक होता है। ____ अज्ञानता से जो दुख होता है वह आत्मिकज्ञान से ही क्षीण किया जा सकता है। ज्ञान और अज्ञान में प्रकाश और अन्धकार के समान विरोध है। अन्धकार को दूर करने के लिये जैसे प्रकाश की आवश्यकता होती है, वैसे ही अज्ञान को दूर करने के लिये ज्ञान की जरूरत पड़ती है। आत्मा जब तक कपायों इन्द्रियों और मन के अधीन रहता है-तब तक वह संसा• रिक कहलाता है। मगर वही जब इनसे भिन्न हो जाता हैनिर्मोह बन अपनी शक्तियों को पूर्ण विकसित करता है, तक मुमुक्ष कहलाता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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