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________________ भगवान् महावीर ३६४ मार्ग दोनों पर श्रद्धा रखता है। जैसे जिस देश में नारियलों के फलों का भोजन होता है उस देश के लोग अन्न पर न श्रद्धा रखते हैं और न अश्रद्धा ही। इसी तरह इस गुणस्थान वाले की भी सत्य मार्ग पर न रुचि होती है और न अरुचि ही । खल और गुड़ दोनों को समान समझनेवाली मोहमिश्रित वृति इसमें रहती है। इतना होने पर भी इस गुणस्थान में आने के पहले जीव को सम्यक्त्व हो गया होता है । इसलिये सासादन गुणस्थान की तरह उसके भव-भ्रमण का भी काल निश्चित हो जाता है। ___अविरतसम्यक्दृष्टि-विरत का अर्थ है व्रत । व्रत बिना जो सम्यक्त्व होता है उसको 'अविरत सम्यकदृष्टि' कहते हैं। यदि सम्यक्त्व का थोड़ा सा भी स्पर्श हो जाता है, तो जीव के भवभ्रमण की अवधि निश्चित हो जाती है । इसी के प्रभाव से सासादन और मिश्र गुणस्थान वाले जीवों का भव-भ्रमण काल निश्चित हो जाता है। आत्मा के एक प्रकार के शुद्ध विकास को सम्यक्दर्शन या सम्यक्दृष्टि कहते हैं इस स्थिति में तत्त्व-विषयक या संशय भ्रम को स्थान नहीं मिलता है। इस सम्यक्त्व से मनुष्य मोक्ष प्राप्ति के योग्य होता है। इसके अतिरिक्त चाहे कितना ही कष्टानुष्ठान किया जाय, उससे मनुष्य को मुक्ति नहीं मिलती । मनुस्मृति में लिखा है: "सम्यकदर्शन सम्पन्नः कर्मर्णा नहि बध्यते । दर्शनेन विहींनस्तु संसारं प्रति पद्यते" ॥ भवार्थ-सम्यकदर्शन वाला जीव कों से नहीं बंधता है, और सम्यकदर्शन विहीन प्राणी संसार में भटकता फिरता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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