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________________ भगवान महावीर ३६० इनमें से प्रथम स्थिति अध्यात्मिक विकास की स्थिति है, दूसरो में यद्यपि कुछ कुछ विकास का स्फुरण होता है, फिर भी अविकास का ही अधिक प्रभाव रहता है तीसरी से छठो स्थिति तक उत्तरोत्तर विकास का क्रम बढ़ता जाता है। और छठी स्थिति में जाकर वह विकास के उच्च शिखर पर पहुँच जाता है। उसके पश्चात् निर्वाण-तत्त्व की प्राप्ति होती है, यदि इस विचाराबलि को संक्षेप में कहा जाय तो यों कह सकते हैं कि पहली दो स्थितियां अविकास काल की हैं और अन्त की चार विकास काल की । उसके पश्चात् निर्वाण काल है। जैन दर्शन जैन साहित्य के प्राचीन ग्रन्थों में जो आगम के नाम से प्रचलित है । आध्यात्मिक विकास का क्रम बहुत ही सुव्यवस्थित रूप से मिलता है। उनमें आत्मिक-स्थिति के चौदह विभाग कर रक्खे हैं-जो “गुणस्थान" नाम से सम्बोधित किये जाते हैं। गुणस्थान-आत्मा की साम्य तत्त्वचेतना, वीर्य, चरित्र, आदि शक्तियों को "गुण" कहते हैं और उन शक्तियों की तारतम्य अवस्था को स्थान कहते हैं। जिस प्रकार बादलों की आड़ में सूर्य छिप जाता है, उसी प्रकार आत्मा के स्वाभाविक गुण भी कई प्रकार के आवरणों से छिप कर सांसारिक दशा ४. जिन्होंने पाँच सयोजना का नाश कर डाला हो, वे ओपपातिक कहलाते है। ओपपातिक ब्रह्मलोक में से ही निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं । ५. जिन्होंने दशों संयोजना का नाश कर डाला हो, वे 'अरहा' कहलाते हैं। इसी स्थिति में निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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