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________________ ३५३ भगवान् महावीर के अभाव से अनन्त दर्शन, अन्तराय के प्रभाव से अनन्त वीर्य, दर्शन-मोहनीय के अभाव से शुद्ध सम्यक्त्व, चारित्रमोहनीय के अभाव से शुद्ध चारित्र और इन समस्त कर्मों के अभाव से अनन्त सुख होता है, मगर शेष के चार कर्मों के बाकी रहने से जीव ऐसी ही जीवन-मुक्त अवस्था में संसार में रहता है और इसी अवस्थावाले सर्वज्ञ वीतराग तीर्थङ्कर भगवान से सांसारिक जीवों को सच्चे धर्म का उपदेश मिलता है, यही सर्वज्ञोपदेशित सब का हितकारी जैन-धर्म है। ऊपर के चार अघातिया-अर्थात् वेदनीय, गोत्र, नाम और आयु-कों की स्थिति पूरी होने पर जीव अपने ऊर्ध्व गमन स्वभाव से जिस स्थान पर कर्मों से मुक्त होता है उस स्थान से सीधा पवन के झकोरों से रहित अग्नि की तरह ऊर्ध्वगमन करता है और जहाँ तक ऊपर बताये हुए गमन सहकारी धर्म द्रव्य का सद्भाव है वहाँ तक वह गमन करता है। आगे धर्मद्रव्य का अभाव होने से अलोकाकाश में उसका गमन नहीं होता। इस कारण समस्त मुक्तजीव लोक के शिखर पर विराजमान रहते हैं। यहाँ जिस शरीर से मुक्ति होती है उस शरीर से जीव का आकार किञ्चित न्यून होता है। __यदि यहाँ कोई यह शङ्का करे कि जब जीव मोक्ष से लौट कर आते नहीं तथा नवीन जीव उत्पन्न होते नहीं और मुक्त होने का सिलसिला हमेशा जारी रहता है तो एक दिन संसार के सब जीव मोक्ष को प्राप्त कर लेंगे और संसार शून्य हो जायगा। परन्तु जीव-राशि अक्षय, अनन्त है, जिस तरह आकाश द्रन्ब सर्वव्यापी अनन्त है। किसी एक दिशा में बिना मुड़े निरन्तर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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