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________________ भगवान् महावार ३३० अनित्य और नित्य दोनों धर्म वाला है ?" उसके उत्तर में कहना कि-"हाँ, घट अमुक अपेक्षा से अवश्यमेव नित्य और अनित्य है।" यह तोसरा वचन-प्रकार है। इस वाक्य से मुख्य तया अनित्य धर्म का विधान और उसका निषेध, क्रमशः किया जाता है । ( स्यादस्तिनास्ति ) ४-चतुर्थ शब्द प्रयोग-"घट किसी अपेक्षा से अवक्तव्य है।" घट अनित्य और नित्य दोनों तरह से क्रमशः बताया जा सकता है। जैसा कि तीसरे शब्द प्रयोग में कहा गया है । मगर यदि क्रम बिना, युगपत् ( एक ही साथ ) घट को अनित्य और नित्य बताना हो तो, उसके लिए जैन शास्त्रकारों ने-'अनित्य' 'नित्य' या दूसरा कोई शब्द उपयोगी न समझ-इस 'अवक्तव्य' शब्द का व्यवहार किया है। यह भी ठीक है। घट जैसे अनित्य रूप से अनुभव में आता है। उसी तरह नित्य रूप से भी अनुभव में आता है। इससे घट जैसे केवल अनित्य रूप में नहीं ठहरता वैसे ही केवल नित्य रूप में भी घटित नहीं होता है। बल्कि वह नित्यानित्य रूप विलक्षण जाति वाला ठहरता है। ऐसी हालत में घट को यदि यथार्थ रूप में नित्य और अनित्य दोनों तरह से क्रमशः नहीं, किन्तु एक ही साथ बताना हो तो शास्त्र कार कहते हैं कि इस तरह बताने के लिये कोई शब्द नहीं है । अतः घट अवक्तव्य है। चार वचन प्रकार बताये गये। उनमें मूल तो प्रारम्भ के दो ही हैं। पिछले दो वचन प्रकार प्रारम्भ के संयोग से उत्पन्न हुए हैं। "कथंचित्-अमुक अपेक्षा से घट अनित्य ही है।" "कथंचित-अमुक अपेक्षा से घट नित्य ही है" । ये प्रारम्भ के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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