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________________ भगवान् महावीर ३२६ पेण" और "पररूपेण" इन दो. अत्यन्त महत्व पूर्ण शब्दों की बिल्कुल उपेक्षा कर दी है। उन्होंने इन शब्दों पर लेश मात्र भी लक्ष्य नहीं किया है। और इसी भयङ्कर भूल की जड़ पर उनके खण्डन की इमारत खड़ी हुई है । वे कहते हैं: न हये कस्मिन धर्मिणि युगपत्सदत्वादि विरुद्ध धर्म समावेशः स भवति शीतोष्णवत ॥ (शाङ्कर भाष्य २-२-२२,) अर्थात्-"जिस प्रकार एक ही वस्तु में शीत और उष्ण एक साथ नहीं हो सकते उसी प्रकार एक वस्तु में एक साथ सद सदात्मक धर्म का समावेश होना असम्भव है। यदि शङ्कराचार्य "स्वरुपेण" और "पर रुपेण" इन दो शब्दों को ध्यान में रखते और सत् एवं असत् शब्द को पूर्व पक्ष के अर्थ में समझने का प्रयत्न करते तो उनको मालूम होता कि सत् और असत् ये दोनों धर्म शीत और उष्ण की तरह विरोधी नहीं है प्रत्युत अपेक्षाकृत हैं। इसका खुलासा एक अंग्रेज़ी कोटेशन के साथ हम पहले कर चुके हैं। इस तत्वज्ञान पर उनका दूसरा आक्षेप यह है कि जिसका स्वरूप अनिर्धारित है, वह ज्ञान संशय की तरह प्रमाण भूत नहीं हो सकता । (अनिर्धारित रुपं ज्ञानं संशय ज्ञानवन् प्रमाण मेव न स्यात् ) यह आक्षेप और इसी तरह के किये हुए दूसरे लोगों के आक्षेप "अनेकान्तता" को संशयवाद गिनने की की भयङ्कर भूल के परिणाम स्वरूप उत्पन्न हुए हैं। जो लोग स्याद्वाद को संशयवाद समझते हैं वे भारी भ्रम में है। काली रात के अन्तर्गत किसी रस्सी को देख कर यह कहना कि "यह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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