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________________ भगवान् महावीर २४२ वह व्यर्थ है । क्योंकि अतिशय ज्ञानी पुरुषों को कर्म प्रत्यक्ष ही मालूम होते हैं। और तेरे समान छद्मस्थ पुरुषों को जीव की विचित्रता देखने से अनुमान प्रमाण से ही कर्म मालूम होते हैं । कर्म को विचित्रता से ही प्राणियों को सुख दुःखादि विचित्र भाव प्राप्त होते रहते हैं। इससे कर्म है, तू ऐसा निश्चय समझ । कितने ही जीव राजा होते हैं। और कितने ही हाथी, अश्व आदि वाहन गति को पाते हैं। कोई हज़ारों पुरुषों का पालन करने वाले महापुरुष होते हैं। और कोई भिक्षा मांग कर भी भूखों मरने वाले रङ्क होते हैं। एक ही देश एक ही काल, और एक ही परिस्थिति में एक ही व्यापार करने वाले दो मनुष्यों में से एक को तो अत्यन्त लाभ हो जाता है और दूसरे की मूल पूंजी का भी नाश हो जाता है । इसका क्या कारण ? इन सब कार्यों का मूल कारण कर्म है। क्योंकि कारण के बिना कार्य में विचित्रता नहीं होती। मूर्तिमान कर्म का अमूर्तिमान जीव के साथ जो सम्बन्ध है वह आकाश और घोड़े के सम्बन्ध के समान बराबर मिलता हुआ है । नाना प्रकार के मद्य और विविध प्रकार की औषधियों से जिस प्रकार जीव को उपघात और अनुग्रह होता है, उसी प्रकार कर्मों से भी जीव का उपघात और अनुग्रह होता है।" इस प्रकार कह कर प्रभु ने उसका संशय मिटा दिया। अग्निभूति भी ईर्षा छोड़ कर अपने पांच सौ शिष्यों के साथ दीक्षित हो गया । .. ___ उसके पश्चात् वायुभूति आया, उसके आते ही प्रभु ने कहा-"वायुभूति तुझे जीव और शरीर के विषय में बड़ा भ्रम है। प्रत्यक्षादि प्रमाणों से ग्रहण न होने कारण जीव शरीर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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