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________________ भगवान् महावीर २३० उसके पश्चात् वह प्रभु का साथ छोड़ कर "तेजोलेश्या साधने के निमित्ति 'श्रावस्ती' नगरी गया। वहां एक कुम्हार की शाला में रह कर उसने प्रभु की बतलाई हुई विधि से "तेजोलेश्या" का साधन किया। तदनन्तर उसकी परीक्षा करने के निमित्त वह एक पनघट पर गया, वहाँ अपना क्रोध उत्पन्न करने के निमित्त उसने एक दासी का घड़ा कंकर मार कर फोड़ दिया । जिससे क्रोधान्वित हो दासी उसे गालियां देने लगी। यह देखते ही उसने तत्काल उस पर "तेजोलेश्या" का प्रहार किया, जिससे वह उसी समय जल कर खाक हो गई। ___एक बार पार्श्वनाथ के छः शिष्य जो कि, चरित्र से भ्रष्ट हो गये थे, पर अष्टांग निमित्त के प्रकाण्ड पण्डित थे, गौशाला से मिले । गौशाला ने उनसे अष्टाङ्ग निमित्त का ज्ञान भी हासिल कर लिया। फिर क्या था, "तेजोलेश्या" और "अष्टाङ्ग निमित्त" का ज्ञान मिल जाने से उसने स्वयं अपने को “जिनेश्वर" प्रसिद्ध किया। और यही नाम धारण कर वह चारों ओर भ्रमण करने लगा। सिद्धार्थ पुर से विहार कर प्रभु वैशाली, वाणीज्य, सानुया. ष्टिक, होते हुए म्लेच्छ लोगों से भरपूर “पेढाण" नामक ग्राम में आये। इसी स्थान में भगवान पर सब से कठिन “सङ्गम" देव वाला उपसर्ग हुआ। इस उपसर्ग का वर्णन हम पूर्व खण्ड में कर आये हैं । अतः यहाँ दुहराने की आवश्यकता नहीं। __यहाँ से विहार कर प्रभु गोकुल, श्रावस्ती, कौशाम्बी और वाराणसी नगरी होते हुए "विशालपुरी" आये। यहाँ पर जिन इत्त नामक एक बड़ा ही धार्मिक श्रावक रहता था। वैभव का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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