SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०५ भगवान् महावीर देवता लोग इकट्ठे हो कर वहां आये, उन्होंने हाथ जोड़ कर इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया। _ "हे स्वामी ! हे जगत को आनन्द देने वाले ! हे जगत का उपकार करने वाले ! तुम जयवन्त हो यो । चिरकाल तक सुखी हो ओ। तुम हमारे स्वामी हो, रक्षक हो, और यशस्वी हो, तुम्हारी जय हो । हम तुम्हारे आज्ञाकारी देव हैं, ये सुन्दर उपवन हैं । ये स्नान करने की वापिकाएं हैं। यह सिद्धाय तन है । यह "सुधर्मा” नामक एक सभा भवन है और यह स्नानागृह है। इस प्रकार उनकी स्तुति कर देवता उनकी सेवा में जुट गये । इस स्वर्ग में अपनी लम्बी आयु को भोग कर अन्त में वहां से च्यव कर इनका जीव "त्रिशला" रानी के गर्भ में स्थित हुआ। भगवान महावीर के इन भवों के वर्णन से और मतलब चाहे हासिल न होता हो । पर दार्शनिक तत्व तो इन में कई स्थान पर देखने को मिलते हैं । सबसे पहली बात हमें यह मालूम होती है कि तपस्या करने एवं मुनिवृत्ति ग्रहण करने का अधिकार प्रत्येक मनुष्य को नहीं होता। जो मनुष्य श्रावक-जीवन में इच्छाओं को दमन करने का पूर्ण अभ्यास नहीं कर लेता, जिसकी आत्मा से शारीरिक मोह को वृतियाँ प्रायः नष्ट नहीं हो जातीं; काम, क्रोध, लोभ, मोहादि की कामवृतियों पर जिसका अधिकार नहीं हो जाता, उसे मुनि वृति ग्रहण करने का कोई हक नहीं होता । प्रवृत्ति मार्ग से बिलकुल विरक्त हुए बिना मिवृत्ति मार्ग को ग्रहण कर लेना पूर्ण अनाधिकार चेष्टा है। इसी सिद्धान्त का पूर्ण उपयोग हम मरीचि के जीवन में होता. हुश्रा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy