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________________ भगवान् महावीर १७० की वन्दना करके वापिस आ गये तब इन्द्रभूति ने उनसे पूछा कि भाई, सर्वज्ञ देखा ! कैसा है ! तब उन्होंने कहा कि अरे, क्या पूछते हो, उनके गुणों की गिनती करना तो गणित के पारिधी से भी बाहर है। यह सुन कर इन्द्रभूति ने मन ही मन सोचा कि यह पाखण्डी तो कोई ज़बरदस्त मालूम होता है। इसने तो बड़े बड़े बुद्धिमान मनुष्यों की बुद्धि को भी चक्कर में डाल दिया है। अब इस पाखण्डी के पाखण्ड की पोल को शीघ्रातिशीघ्र खोलना मेरा कर्तव्य है। नहीं तो असंख्य भोले प्राणी इसके पाखण्ड की ज्वाला में जल कर भस्म हो जायेंगे । यह सोच कर वह बड़े ही गर्वपूर्वक अपने पाँच सौ शिष्यों को लेकर महावीर को पराजित करने के इरादे से चला । सब से प्रथम तो वहाँ के ठाट को देख कर ही स्तम्भित हो गया, उसके पश्चात् वह अन्दर गया। महावीर तो अपने ज्ञान के प्रभाव से उसका नाम, गोत्र और उसके हृदय में रहा हुआ गुप्त संशय जिसे कि उसने किसी के सामने प्रकट न किया था, जानते थे। उसे देखते ही अत्यन्त मधुर स्वर से उन्होंने कहाः "हे गौतम ! इन्द्रभूते त्वं सुखेन समागतोसि" महावीर के मुँह से इन शब्दों को सुन कर उसका आश्चर्य और भी बढ़ गया । पर यह सोच कर उसने अपना समाधान कर लिया कि मेरा नाम तो जगत प्रसिद्ध है, यदि उसे इसने कह दिया तो क्या हुआ । सर्वज्ञ तो इसे तब समझना चाहिये कि जब यह मेरे मनोगत भावों को बतला दे। इतने ही में महावीर कहते हैं कि हे विद्वान् ! "तेरे मन में जीव है या नहीं" इस बात का सशंय है और इसका कारण वेद Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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