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सिद्धान्त और उपदेश
निर्वाण या तृष्णाक्षय-बुद्धदेव ने कहा है कि काम अथवा तृष्णा का सब प्रकार से परित्याग करने ही से दुःख का निरोध होता है । इस तृष्णा के नाश ही का नाम “निर्वाण" है; इसी लिये निर्वाण का एक नाम "तृष्णा-क्षय" और दूसरा "अनालय" है । आलय शब्द का अर्थ काम अथवा तृष्णा है।
बहुधा यह विश्वास किया जाता है कि निर्वाण का अर्थ अन्तिम नाश अथवा मृत्यु है। पर यह विश्वास गलत है। निर्वाण का अर्थ मृत्यु या अन्तिम नाश नहीं है। निर्वाण का तात्पर्य यह है कि जिस मानसिक प्रवृत्ति, और जीवन तथा उसके सुखों की जिस तृष्णा के द्वारा मनुष्य पुनर्जन्म के चक्कर में पड़ता है, उसका नाश हो जाय । बुद्धदेव का जिस निर्वाण से तात्पर्य था, वह इसी जीवन में प्राप्त हो सकता है। स्वयं बुद्ध ने वह निर्वाण अपने जीवन में ही प्राप्त किया था। अतएव निर्वाण पाप-रहित जीवन बिताने, तृष्णाओं को त्यागने और निरन्तर
आत्मोन्नति करने से प्राप्त होता है। संक्षेप में निर्वाण का अर्थ यह है कि मृत्यु के उपरान्त फिर पुनर्जन्म न हो।
कर्म और पुनर्जन्म-गौतम बुद्ध आत्मा का अस्तित्व नहीं मानते थे; पर आर्यों के मन में आत्मा के पुनर्जन्म का सिद्धान्त इतना जमा हुआ था कि वह निकाला नहीं जा सकता था। इसी कारण गौतम बुद्ध पुनर्जन्म का सिद्धान्त ग्रहण करते हुए भी आत्मा का सिद्धान्त नहीं मानते थे। परन्तु यदि आत्मा. ही नहीं है, तो वह क्या वस्तु है जिसका पुनर्जन्म होता है ? इसका उत्तर बौद्ध धर्म के कर्मवाद में मिलता है।
बौद्ध धर्म का कर्मवाद या कर्म सम्बन्धी सिद्धान्त संक्षेप में
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