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________________ २३ भारत की दशा प्रकृति में भेद मानता था । दूसरा सिद्धान्त सांख्य के विरुद्ध था। यही दूसरा सिद्धान्त विकसित रूप में वेदान्त के नाम से प्रचलित हुआ था । अस्तु; बुद्धदेव के समय तक दार्शनिक विचार परिपक हो चुके थे। पर बहुतेरे वेदान्ती, भिक्षु, संन्यासी और परिव्राजक आत्मा, परमात्मा, माया और प्रकृति संबंधी शुष्क वितण्डा-वाद में ही फंसे हुए थे। इस तरह से बुद्ध के जन्म-समय में (१) यज्ञ और बलिदान, (२) हठ योग और तपस्या तथा (३) ज्ञान-मार्ग और दार्शनिक विचार, ये तीन मुख्य धाराएँ बड़ी प्रबलता से बह रही थीं। पर सतह के नीचे और भी बहुत सी छोटी छोटी धाराएँ थीं । जैसे, टोने-टोटके का लोगों में बहुत रिवाज था । सर्प, वृक्ष आदि की पूजा तथा भूत-चुडैल आदि का माहात्म्य भी काफी तौर पर फैला हुआ था। पर उस समय असली प्रश्न, जो मनुष्य के सामने अनादि काल से चला आ रहा है, यह था कि जो कुछ दुःख इस संसार में है, उसका कारण क्या है। याज्ञिकों ने इसका उत्तर यह दिया था कि संसार में दुःख का कारण देवताओं का कोप है। उन लोगों ने देवताओं को प्रसन्न करने का साधन पशु-यज्ञ स्थिर किया था, क्योंकि लोक में देखा जाता है कि जो मनुष्य रुष्ट हो जाता है, वह प्रार्थना करने और भेट देने से प्रसन्न हो जाता है । हठ योग और तपश्चरण करने वालों ने इस प्रश्न का यह उत्तर दिया कि तपस्या से मनुष्य अपनी इंद्रियों को अपने वश में कर सकता है; और इंद्रियों को वश में करने से वह चित्त की शांति अथवा दुःख से छुटकारा पा सकता है। ज्ञान-मार्ग का अनुसरण करनेवालों ने इस प्रश्न का उत्तर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034762
Book TitleBauddhkalin Bharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJanardan Bhatt
PublisherSahitya Ratnamala Karyalay
Publication Year1926
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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