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________________ भारत की दशा बहुत से भिक्षु, साधु, संन्यासी, वैखानस, परिव्राजक आदि एक जगह से दूसरी जगह विचरा करते थे। लोगों में इनका बहुत अधिक मान था । उस समय के लोग आतिथ्य सेवा करना बहुत अच्छी तरह जानते थे। अतएव इन परिव्राजकों के ठहरने के लिये राजे-महराजे तथा धनी पुरुष बस्ती के बाहर अच्छे अच्छे आश्रम बनवा देते थे। बहुत से स्थानों में उन आश्रमों का प्रबंध पंचायती चंदे से भी होता था। विचरते हुए परिव्राजक इन आश्रमों में आ ठहरते थे । लोग उनके भोजन आदि का प्रबंध पूर्ण रूप से कर देते थे। नित्य प्रति लोग इन परिव्राजकों के दर्शन करने के लिये वहाँ जाते थे और दार्शनिक तथा धार्मिक विषयों पर इनके विचार सुनते थे। यदि वहाँ उसी समय और भी कोई परिव्राजक ठहरे होते थे, तो प्रायः शास्त्रार्थ भी छिड़ जाता था। वे पूर्ण स्वतंत्रता के साथ अपने विचार प्रकट करते थे। स्त्री और पुरुष दोनों परिव्राजिका और परिव्राजक हो सकते थे। प्रचलित संस्थाओं के प्रति इन लोगों में कोई विशेष प्रेम न था । उनमें से बहुतों ने तो प्रचलित धर्म से असंतुष्ट होकर ही घरबाड़ छोड़कर संन्यासाश्रम ग्रहण किया था; इसलिये वे प्रचलित धर्म का प्रतिपादन और समर्थन न करते थे। प्रचलित धर्म और प्रचलित प्रणाली की त्रुटियों से असंतुष्ट होने के कारण हीये लोग चारों तरफ इन संस्थाओं की बुराइयाँ प्रकट करते थे और तत्कालीन समाज की खुले तौर पर समालोचना करते थे। वे सर्व साधारण में प्रचलित धर्म की ओर अश्रद्धा तथा असंतोष उत्पन्न कर रहे थे और उनके विश्वासों की जड़ धीरे धीरे कमजोर करते जाते थे। इस प्रकार प्रचलित धर्म की जड़ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034762
Book TitleBauddhkalin Bharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJanardan Bhatt
PublisherSahitya Ratnamala Karyalay
Publication Year1926
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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