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बौख-कालीन भारत
३७८ मालूम होता है कि वहाँ एक कठिन परीक्षा होती थी, जिसमें बड़े कड़े प्रश्न किये जाते थे; और जो उसमें उत्तीर्ण होते थे, वही विद्यालय में भरती किये जाते थे। पढ़ाई का क्रम कम से कम दो या तीन वर्ष का था।
इस विश्वविद्यालय के पदक, मुहरें और प्रशंसापत्र (सार्टिफिकेट आदि ) पाने के लिये लोग लालायित रहते थे। इसकी बहुत सी मुहरें प्राप्त हुई हैं, जिन पर ये शब्द खुदे हुए हैं-"श्रीनालन्द-महाविहारीयआर्य-भिक्षुक-संघस्य" । इन मुहरों के दोनों किनारों पर शान्त भाव से बैठे हुए दो मृगों के चिह्न बने हैं ।
विश्वविद्यालय का प्रबन्ध बहुत सन्तोषजनक था। वहाँ के नियम बहुत कड़े थे और उन का पालन बड़ी कड़ाई के साथ किया जाता था। प्रति दिन बड़े तड़के एक बड़ा घंटा बजाकर स्नान का समय सूचित किया जाता था। विद्यार्थीगण सौ सौ या हज़ार हज़ार के झुडों में अँगोच्छा हाथ में लिये हुए चारों ओर से तालाब की ओर जाते हुए दिखाई पड़ते थे । स्नान करने के लिये ऐसे दस तालाब थे। प्रति दिन संध्या समय धर्माचार्य मन्त्र उच्चारण करते हुए एक कोठरी से दूसरी कोठरी में जाते थे।
नालन्द के विश्वविद्यालय का लोप कब हुभा, यह ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता। इसमें सन्देह नहीं कि दसवीं शताब्दी तक इसका अस्तित्व था, क्योंकि इतिहास से पता लगता है कि बंगाल के राजा देवपाल ने वीरदेव नामक किसी पुरुष को यहाँ के विहार का महन्त बनाया या । फिर बंगाल के राजा महिपाल के राज्य काल के नवें वर्ष में विहार के जल जाने पर तैलधक ग्राम के बालादित्य ने इसका पुनरुद्धार
* ताकाकुसु- इसिग" पृ० १७७.
+आर्कियोलाजिकल रिपोर्ट (ईस्टर्न सर्किल), १६१६-१७, पृ० ४३. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com