SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 282
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५५ प्राचीन शिल्प-कला 'शिल्प कला में भी दिखाई देता है; और यही उस शिल्प कला की एकता सूचित करता है। भारतीय शिल्प कला के इस "आदर्श भाव" को अँगरेजी में “आइडियलिम" कहते हैं। हिन्दू शिल्पकारों ने सदा श्रादर्श मूर्ति या चित्र बनाने का ही प्रयत्न किया है। शिल्प कला'ही क्यों, सभी बातों में प्राचीन भारतीयों की प्रवृत्ति आदर्शता की ही ओर रही है । लौकिक जीवन और लौकिक बातों की ओर से वे प्रायः उदासीन ही रहे हैं। इसी लिये भारतवर्ष की प्राचीन शिल्प कला का धर्म से भी सदा घनिष्ट सम्बन्ध रहा है। प्राचीन भारत के चित्रकार तथा मूर्तिकार अपनी विद्या तथा कला कौशल का उपयोग संसार की साधारण वस्तुओं के सम्बन्ध में नहीं करते थे। उनका मुख्य उद्देश्य देवताओं के चित्र तथा मूर्तियाँ बनाना था। हमारे यहाँ मानव जीवन की घटनाओं के चित्र तथा मानव मूर्तियाँ निर्माण करना चित्रकार तथा मूर्तिकार का धर्म नहीं माना गया है। शुक्राचार्य ने "शुक्रनीति" में कहा है अपि श्रेयस्करं नृणां देवबिम्बमलक्षणम् । सलक्षणं मर्त्य बिम्ब नहि श्रेयस्करं सदा ॥ । अर्थात्-"चित्रकार तथा मूर्तिकार के लिये यही श्रेयस्कर है कि वह सदैव देव-मूर्तियाँ बनावे । मनुष्यों की आकृतियाँ अथवा चित्र बनाना केवल बुरा ही नहीं, अपवित्र भी है। देवमूर्ति चाहे कितनी ही भद्दी क्यों न हो, वह सुन्दर से सुन्दर मानव मूर्ति से अच्छी है।" यही कारण है कि प्राचीन भारतवर्ष की जितनी मूर्तियाँ अभी तक मिली हैं, वे प्रायः सब की सब या तो किसी देवता या महापुरुष की हैं या धर्म-संबंधी अन्य घटनाओं के आधार पर बनाई गई हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034762
Book TitleBauddhkalin Bharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJanardan Bhatt
PublisherSahitya Ratnamala Karyalay
Publication Year1926
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy