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राजनीतिक विचार में भी बरते जाते थे। "प्रस्ताव", "बहुमत", "वोट", "वोटिंग टिकट" या पर्चा, "कोरम", "हिप" इत्यादि वर्तमान समय की पार्लिमेंटों, काउन्सिलों और मीटिंगों की विशेषताएँसमझी जाती हैं। पर वास्तव में ये सब बातें दूसरे नाम से बौद्ध काल के संघों और गण-राज्यों में भी प्रचलित थीं। कदाचित् इस बात पर कुछ लोग विश्वास न करें और कहें कि प्राचीन ग्रंथों के शब्दों को तोड़ मरोड़कर ये सब अर्थ निकाले गये हैं। पर जिस ग्रंथ (विनय पिटक) के आधार पर यह वर्णन दिया गया है, वह सब के सामने तैयार है । उस ग्रंथ का अनुवाद अंगरेजी में भी हो गया है और "सेक्रेड बुक्स आफ दि ईस्ट सीरीज' में छपा है। ___यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि संघ के "ज्ञप्ति", "कर्मवाचा", "शलाका-प्राहक","गणपूरक" आदि पारिभाषिक या सांकेतिक शब्दों की व्याख्या बुद्ध ने कहीं नहीं की है । यदि संघ के भिन्न भिन्न नियमों या पारिभाषिक शब्दों के जन्मदाता बुद्ध ही होते, तो वे उन नियमों और पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या विस्तार के साथ और अवश्य करते। अतएव सिद्ध है कि बुद्ध ने इन सब नियमों और पारिभाषिक शब्दों को उन प्रजातन्त्रों या गण राज्यों से ग्रहण किया था, जो उनके समय में प्रचलित थे। बुद्ध के समय में ये सब पारिभाषिक शब्द सर्व साधारण में इतने अधिक प्रचलित थे कि बुद्ध भगवान् उनकी व्याख्या करने की कोई आवश्यकता ही न समझते थे ।
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